SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय १ : मोक्षमार्ग ११ जिस प्रकार व्यक्ति किराये के मकान को अपना घर नहीं मानता, उसमें स्वामित्व भाव नहीं रखता, उसी प्रकार सम्यक्त्वी भी अपने शरीर को निश्चित अवधि के लिए मिला हुआ किराये का घर समझता है, अपना असली घर नहीं मानता । वह समझ लेता है कि मेरा असली घर तो सिद्धिस्थान है, जहाँ मैं शाश्वत अव्याबाध सुख में अनंतकाल तक निमग्न रहँगा । एक लौकिक उदाहरण लीजिए - एक बहन है । वह बढ़िया साडी पहनकर बाजार में जा रही है । लांड्री से आज ही धुलकर आयी है । वह उस साड़ी को मगन मन पहने है । इतने में सामने से दूसरी महिला आई । उसने उस साड़ी को देखा । और बोली बहन जी ! यह साड़ी तो मेरी है। बहन चौंकी । दूसरी महिला ने लाण्ड्री का निशान दिखाकर बताया देखिए, मेरे कपड़ों पर लाण्ड्री ऐसा निशान लगाती है । ___ उस बहन ने भी देखा, विचार किया मेरे कपड़ो पर तो लाण्ड्रीवाले दूसरा निशान लगाते हैं । विश्वास हो गया कि यह साड़ी मेरी नहीं है, इस महिला की ही है । लेकिन क्या वह बहन उस साड़ी को बाजार में ही उतारकर उस महिला को दे सकती है ? कभी नहीं; सामाजिक मर्यादा, लज्जा आड़े आ जायेगी, वह उसे पहने रहेगी; किन्तु मन में यही विचार चलता रहेगा कि यह साड़ी इस महिला की है, मेरी नहीं है; कब घर पहुँचूँ और कब इस साड़ी को उतारकर इस महिला के घर भिजवाऊँ । . दूसरा उदाहरण लीजिए - ___ एक युवती है । उसका विवाह हो गया; किन्तु अभी द्विरागमन (गौना) नहीं हुआ । पिता के घर रह रही है । किन्तु विवाह होते ही उसके मन में यह भावना जम गई कि यह (पिता का) घर मेंरा नहीं है, मेरा घर तो मेरे पति जहाँ रहते हैं, वह है । इस भावना के साथ ही उसकी वृत्तियाँ बदल गई | पिता का घर अब उसके मन-मस्तिष्क में पीहर (पराया) बन गया, उसकी अधिकार भावना कम हो गई, संकोच वृत्ति आ गई, सोचती है- माँ से अमुक वस्तु माँगू या नहीं, कहीं इंकार न कर दे । वह युवती पिता के घर रह रही हैं, हंसती है, बोलती है, खाती हैं, छोटे भाई-बहनों से प्यार भी करती हैं, माता-पिता की आज्ञा भी मानती है, सब काम करती है; किन्तु उसका मोह ममत्व कम हो गया, कल तक जिस घर को अपना मानती थी, वह पराया हो गया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy