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________________ आचार-(विरति-संवर) ३२३ "अर्थ प्रयोजनम् ... शरीरपालनादि विषयं" - अर्थ का अभिप्राय है - आवश्यकता, शरीर पालन-पोषण के लिए अनिवार्य रूप से जो हिंसा करनी पड़ती है वह है अर्थदण्ड । इसके विपरीत जिस हिंसा के बिना भी काम चल सकता हो, वह व्यर्थ हिंसा 'अनर्थदण्ड' है । (-उपासकदशाटीका) इस व्यर्थ की हिंसा का त्याग श्रावक अनर्थदण्डविरमणव्रत में कर देता है । वह न तो किसी के प्रति अपने मन में बुरे विचार लाता है और न ही हिंसक साधन (छुरी आदि) किसी को देता है । वह किसी को पाप या हिंसा कार्य का उपाय भी नहीं बताता । वह अपनी सारी प्रवृत्ति सावधानी से करता है । यह ध्यान रखता है कि हिंसा आदि पापों से अधिक से अधिक बचाव शिक्षाव्रत - यह चार हैं - (१) सामायिक - समस्त सांसारिक कार्यों - सावध कर्मों को त्यागकर कम से कम ४८ मिनट (एक मुहूर्त) तक धर्मध्यान करना । (२) देशावकाशिक व्रत - दिग्वत में ग्रहण की हुई दिशाओं की सीमा तथा अन्य सभी व्रतों में ली हुई मर्यादाओं को और भी संक्षिप्त करना, साथ ही देश (आंशिक) पौषध करना, दया पालना, संवर करना और चौदह नियमों का चिंतन करना-देशावकाशिक व्रत है । . यह संक्षिप्तीकरण व्रती श्रावक अपनी परिस्थिति के अनुसार एक घड़ी (२४ मिनट) से लेकर एक दिन (२४ घण्टे) तक कर सकता है । यदि उसकी सामर्थ्य हो तो और भी अधिक काल के लिए कर सकता है । देशावकाशिक व्रत के सम्बन्ध में यह आचार्यों के अभिमत दिये हैं - आजकल तिविहार उपवास वाला व्यक्ति चार प्रहर या इससे अधिक समय का पौषध करे वह देशावकाशिकपौषध माना जाता है । चौदह नियम इस प्रकार हैं - १. सचित्त, २. द्रव्य, ३. विगय-दूध, दही, घी, तेल, गुड़, ४. जूतेचप्पल आदि ५. पान-सुपारी आदि ६. पहनेने-ओढ़ने के वस्त्र, ७. फूल, फूल माला आदि. ८. रिक्शा आदि वाहन का प्रयोग, ९. शैया और आसन, १०. विलेपन-पदार्थ .११ अब्रह्म सेवन, १२. दिशाओं की सीमा पुनःमर्यादित करना, १३. जल की मर्यादा और १४. अशन आदि चारों प्रकार के भोजन की मर्यादा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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