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३१४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ७ : सूत्र ९-१२
चोरी में लोभवृत्ति विशेष रूप से काम करती है । मानव दूसरे के स्वामित्व की वस्तु का अपहरण और ग्रहण लालच के कारण ही करता है । शास्त्र में कहा है- लोभाविले आययइ अदत्तं - प्राणी लोभग्रस्त होकर ही दूसरे की वस्तु लेता है । अतः चोरी की इच्छा से किसी वस्तु को लेना स्तेय कहलाता
यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि 'स्तेय' की सीमा बहुत सूक्ष्म है । दांत कुरेदने के लिए तिनका भी बिना दिये लेना निषिद्ध है । "दंत सोहणमायस्स अदत्तस्स विवज्जणं (उत्तरा) ।"
अब्रह्म - चारित्रमोहनीय कर्म की वेद प्रकृति के विपाकोदय से स्त्रीपुरुष में जो स्पर्श आदि की इच्छा होती है, उस इच्छा के अनुरूप जो वचन प्रवृत्ति होती है, तथा कर्म (मिथुन-कर्म) होता है, वह. मैथुन है और वही अब्रह्म है- अब्रह्म का सेवन है ।
परिग्रह - परिग्रह का शाब्दिक अर्थ है- सभी ओर से ग्रहण करना (परि-चारों ओर से, ग्रह-ग्रहण करना) । किन्तु प्रस्तुत में परिग्रह का अभिप्राय ममत्व-मूर्छा से है । मूर्छा का अभिप्राय है - गहरा ममत्व । ममत्व भाव जितना गहरा होगा, मूर्छा भी उतनी ही अधिक होगी ।
___ मूर्छा का लौकिक अर्थ बेहोशी अथवा स्वयं का भान भूल जाना है । इसी प्रकार आत्मा जब अपने स्वरूप का भान भूलकर पर में - राग- द्वेष आदि भावों, पौद्गलिक वस्तुओं में गृद्ध हो जाता है, उनसे ममत्व करता है, आध्यात्मिक दृष्टि से यही मूर्छा है, यही परिग्रह है ।
विशेष - असत्य, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह का निषेध अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए है, अथवा ये हिंसा के ही विस्तार है । क्योंकि आत्मा की राग-द्वेषात्मक वृत्ति ही हिंसा है और राग-द्वेष-मोह के बिना असत्य आदि चारों की प्रवृत्ति संभव ही नहीं हो सकती ।
इसीलिए 'हिंसा' के लक्षण में दिया गया 'प्रमत्तयोग' शब्द इन चारों में भी योजित कर (लगा) लेना चाहिए; जैसे 'प्रमादयोग से असत् को स्थापित करना अनृत (असत्य है)' आदि ।
इसका अभिप्राय यह है कि हिंसा आदि पाँचो पाप पन्द्रह प्रकार के प्रमाद से प्रेरित हुए मन-वचन-काय योगों द्वारा होते हैं ।
इस अपेक्षा से मन में दुर्भाव न रखना, अप्रिय-कटुक-निंद्य वचन नहीं बोलना और काय से ऐसी कोई चेष्टा भी नहीं करना, सत्य है । अर्थात्
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