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आचार-(विरति-संवर) ३११ हिंसा करना, मारना, प्राणों का वियोग करना, प्राणो का वध करना, देहान्तर को संक्रम ,करा देना, दुसरी गति को पहुंचा देना, आदि है ।
व्यपरोपण में मारना, पीटना, ताड़ना, तर्जना आदि भी सभी क्रियाएँ गर्भित हैं जिनसे जीव को कष्ट अथवा दुःख की अनुभूति होती है।
प्राण - प्राण का अर्थ है जीवन धारण करने वाली शक्ति । यह दस है (१) स्पर्शनेन्द्रियबल, (२) रसनेन्द्रियबल, (३) घ्राणेन्द्रियबल, (४) चक्षुइन्द्रियबल (५) श्रोत्रइन्द्रियबल (६) मनोबल (७) वचनबल (८) कायबल (९) श्वासोच्छ्वास और (१०) आयुष्यबल ।
प्रमाद - आत्मा को अपने स्वरूप (या कर्तव्य) के प्रति बेभान करने वाली वृत्ति प्रमाद है। आचरण की दृष्टि से इसके पन्द्रह भेद बताये हैं
(१) मद (मद्य अथवा मद-अभिमान) (२-६) पाँच इन्द्रियों के विषय (७-१०) विकथा (स्त्रीकथा, राजकथा, भोजनकथा, देशकथा) (११-१४) चार कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) और (१५) निद्रा ।
इन पन्द्रह प्रकार के प्रमादों में से किसी एक अथवा अधिक के वशीभूत होकर मन-वचन-काया (इनमें से भी किसी एक, दो, अथवा तीनों) के योगों के द्वारा किसी के प्राणों को कष्ट पहुंचाना, मारना, पीटना, ताड़ना, तर्जना देना अथवा जीवन ही समाप्त कर देना हिसा है ।
__ यहाँ 'प्रमत्त' शब्द विशिष्ट अर्थ को लिए हुए है । साधारणतया यह शंका उठाई जाती है कि यदि प्रवृत्ति में प्रमाद न हो और किसी जीव का घात हो जाय तो वह हिंसा की कोटि में आता है या नहीं?
. इस शंका का कर्मशास्त्रसम्मत समाधान इस प्रकार है - प्रमाद का अस्तित्व छठे गुणस्थान तक रहता है । उसके आगे के गुणस्थानों में प्रमाद छूट जाता है । अतः उससे पहले की (छठवें गुणस्थान तक की ) सभी भूमिकाओं में प्रमाद का अस्तित्व रहने से मानव (प्राणीमात्र) को हिंसा का दोष लगता है । हाँ यह अवश्य है कि हिंसा रूप भाव न होने से हिंसा का दोष अति सूक्ष्म मात्रा में लगता है ।
अप्रमत्त अवस्था में यदि शरीर प्रवृत्ति से किसी जीव की विराधना हो जाती है तो वहाँ साधक को हिंसा-दोष कम लगता है ।
इस अपेक्षा से हिंसा के दो भेद किये गये हैं- (१) भावहिंसा (२) द्रव्यहिंसा ।
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