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________________ आचार-(विरति-संवर) ३०९ आत्मिक सन्दर्भ में मैत्री का अभिप्राय हैं - अपनी आत्मा की रागद्वेष, क्रोध आदि कषायों से रक्षा, कषायों को उत्पन्न न होने देना, यही आत्मा का हित है और मैत्री भावना से साधक इसी हित को साधता है ।। प्रमोद भावना- गुणों का विचार करके उन गुणों में हर्षित होना, प्रमोद भाव है । इस भावना से साधक में गुणग्रहण का भाव जागृत होता है, वह अधिक से अधिक गुण अपने अन्दर समाविष्ट करने को प्रयत्नशील हो जाता है, वह अवगुणों में भी गुण दर्शन कर उसे ग्रहण करता है, जैसे हंस पानी को अलग करके क्षीर ग्रहण करता है । साधक की आत्मा गुणसंपन्न हो जाती है । इस भावना के अभ्यास से आत्मा में स्वाभाविक मुद्रित वृत्ति प्रसन्नता बनी रहती है । कारूण्य भावना - दीन व्यक्तियों पर अनुग्रह का भाव रखना, अथवा दुःखी प्राणियों के कष्ट को मिटाने का भाव करुणा है । संसार के प्राणी शारीरिक, मानसिक आदि अनेक प्रकार के दुखों से पीड़ित हैं । यद्यपि यह सत्य है कि उन्हे जो दुःख, क्लेश, कष्ट आदि मिले हैं; ये सब उनके पूर्वजन्म के अथवा इसी जन्म के अशुभकर्मों के फल हैं, लेकिन व्रती साधक को यह नहीं सोचना चाहिए कि 'इन्हें अपने किये का फल भोगने दो।' अपितु यथाशक्ति उनके दुःख को दूर करने का उपाय भी करना चाहिए। • माध्यस्थ्य भावना- संसार में सभी अपने अनुकूल नहीं हो सकते । जीवों की रुचि-प्रवृत्ति भिन्न-भिन्न प्रकार की है । कुछ सज्जन, शिष्ट विनयी होते हैं तो दुर्जन दुष्टों की भी कमी नहीं है । व्रती साधक का कर्तव्य है कि दुर्जनों और अविनयी पुरुषों (प्राणियों) पर द्वेष न करे; अपितु माध्यस्थ भाव रखे । माध्यस्थ का अभिप्राय है उनकी कल्याण-कामना करते हुए, उनकी अप्रियवृत्तियों के प्रति उपेक्षा भाव रखना, तटस्थ रहना । भगवान महावीर की वाणी में - उवेइ एणं बहिया य लोगं से सव्व लोगम्मि जे केई विण्णू । - आचारांग १, ४/३ अपने धर्म के विपरीत रहने वाले व्यक्ति के प्रति भी उपेक्षा भाव रखो। क्योंकि जो कोई विरोधी के प्रति उपेक्षा- तटस्थता रखता है, उसके कारण उद्विग्न नहीं होता, वह विश्व के समस्त विद्वानों में शिरमौर है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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