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२८० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ६ : सूत्र १७
अतः आरम्भ परिग्रह की सच्ची कसौटी आत्मा का मूर्च्छाभाव है, बाह्य परिग्रह आदि तो स्थूल दृष्टि है ।
आगम वचन
चउहिं ठाणेहि जीवा तिरिक्खजोणियत्ताए कम्मं पगरेन्ति, तं जहा-माइल्लताते णियडिल्लताते अलियवयणेणं कूडतुल्ल कूडमाणेणं । स्थानांग, स्थान ४. उ. ४, सूत्र ३७३
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( जीव चार प्रकार से तिर्यंच आयु का बन्ध करते हैं (१) छल-कपट से (२) छल को छल द्वारा छिपाने से (३) असत्य भाषण से और (४० झूठा तोलने मापने से ।
तिर्यचगति के आस्रवद्वार ( बन्धहेतु ) -
माया तैर्यग्योनस्य । १७।
कपट कुटिलता तिर्यचगति का आस्रवद्वार तिर्यंच आयुष्य बन्ध का हेतु है ।
विवेचन मायाचार अथवा छल-प्रपंच का भाव रखना, तिर्यंचगति के आस्रव का कारण है । इससे तिर्यंचगति का बन्ध होता है ।
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व्यावहारिक जीवन में तो छल-कपट बुरा है ही, किन्तु धार्मिक जगत में भी जो लोग धर्म के नाम पर पाखण्ड फैलाते हैं, भोले भक्तों को ठगते हैं उनके और भी कटुपरिणाम सामने आते हैं ।
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यहाँ तक कि यदि धर्माचरण में भी कपटपूर्वक मन मे वक्रता रख कर प्रवृत्ति करते हैं तो उसके कटुपरिणाम न केवल इसी जन्म में किन्तु अगले जन्म में भी भोगने पड़ते हैं । जैस कि सूत्रकृतांग ( २/१/९) में कहा है
जे इह मायाइ मिज्जती आंगता गब्भायऽणं तसो ।
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जो मायापूर्वक आचरण करता है, वह अनन्त बार जन्म-मरण करता है।
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आगम वचन
चउहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्सत्ताते कम्मं पगरेंति, तं जहा - पगति, भद्दताते पगतिविणीययाए साणुक्कोसयाते अमच्छ रिताते
स्थानांग, स्थान ४, उ. ४. सूत्र ३७३
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