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________________ आस्रव तत्त्व विचारणा २७५ अपने व्रतों में वृद्धि कर सकें, आत्म-साधना में दृढ़ हों, यही व्रती अनुकंपा I (३) दान - आहार, औषध, अभयदान, ज्ञान आदि देना । दान विनम्र भावपूर्वक अपने और दूसरे के उपकार के लिए दिया जाता है । दान में सहायक बनना भी दान की श्रेणी में है । (४) सरागसंयमादि योग (क) सरागसंयम इसमें चार बातें अन्तर्निहित है संयम ग्रहण करने के बाद भी आत्मा में राग के गृहस्थधर्म, जिसमें संयम और असंयम का परतन्त्रता में भोगों का त्याग । (घ) बालतप तत्त्वज्ञान से रहित दशा में काया कष्ट आदि तप । (५) क्षांति इसका अभिप्राय है क्षमा । क्षमा क्रोध कषाय का उपशम हो जाने पर ही संभव है, अतः उपलक्षण से क्रोध ( साथ ही मान) की शांति । (६) शौच इसका शाब्दिक अर्थ पवित्रता है । आध्यात्मिक संदर्भ में लोभ ( साथ ही माया - कपट) ही आत्मा की अपवित्रता है । अतः शौच का अभिप्राय है लोभ का त्याग । हृदय का पवित्रता । अंश शेष रह जायें । (ख) संयमासंयम मिलाजुला रूप होता है । (ग) अकाम निर्जरा आगम वचन - - Jain Education International - - - इन हेतुओं अथवा इन क्रियाओं का आध्यात्मिक के साथ-साथ सामाजिक महत्व भी बहुत है । साता और असाता वेदनीय के जो बन्धहेतु है उनका स्पष्ट और प्रत्यक्ष प्रभाव सामाजिक, पारिवारिक जीवन पर पड़ता है । असातावेदनीय के हेतुओं के आचरण से समाज, परिवार सभी दुखी हो जाते हैं, जबकि सातावेदनीय के हेतु सुख के कारण बनते हैं, हर्ष और खुशियों का सागर लहराने लगता है । - पंचहि ठाणेहिं जीवा दुल्लभबोधियत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा(१) अरहंताणं अवन्न वदमाणे (२) अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स अवन्नं वदमाणे (३) आयरियउवज्झायाणं अवन्नं वदमाणे (४) चउवण्णस्स संघस्स अवण्णं वदमाणे (५) विवक्कतवबं भचेराणं देवाणं अवन्नं वदमाणे । - स्थानांग ५ / २ / ४५६ --- For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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