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अजीव तत्त्व वर्णन २४३ (द्रव्य का लक्षण सत् है ।) माउयाणुओगे (उप्पन्ने वा विगए वा धुवे वा)
-स्थानांग, स्थान १० (उत्पन्न होने वाले नष्ट होने वाले, और ध्रुव को मातृकानुयोग कहते हैं । (और वही सत् है।)
परमाणुपोग्गलेणं भंते! किं सासए असासए ?
गोयमा ! दवट्याए सासए वन्नपज्जवेहि जाव फासपज्जत्रे हिं असासए ।
- भगवती, श. १४, उ. ४, सूत्र ५१२ (भगवन ! परमाणु पुद्गल नित्य है अथवा अनित्य ? ___ गौतम ! द्रव्यार्थिकनय से नित्य है तथा वर्णपर्यायों से लेकर स्पर्शपर्यायों तक की अपेक्षा अनित्य हैं ।)
(संगति - भगवती, श. ७, उ. २, सूत्र २७४ में इसी प्रकार का प्रश्नोत्तर जीव के विषय में भी किया गया है ।)
सूत्र में कहा गया है कि जो तद्भाव रूप से अव्यव है, सो ही नित्य है । सूत्रकार का आशय यहाँ द्रव्यों से है कि द्रव्य नित्य हैं । किन्तु आगम वाक्य ने द्रव्य के नित्य और अनित्य दोनों रूपों को स्पष्ट कर दिया है । अप्पितणप्पिते ।
- स्थानांग, स्थान १० सूत्र ७२७ (जिसको मुख्य करे सो अर्पित और जिसको गौण करे सो अनर्पित है । इन दोनों नयों से वस्तु की सिद्धि होती है ।) द्रव्य (सत्) का विवेचन -
उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ।२९ । तद्भावाव्ययं नित्यम् ।३०। अर्पितानर्पितसिद्धेः । ३१।
उत्पाद (उत्पत्ति, व्यय (विनाश) और ध्रौव्य (स्थिरता)-इन तीनों से युक्त जो होता है, वह सत् है ।
जो तद्भाव रूप से अव्यय अर्थात् तीनों काल में विनाशरहित हो, उसे नित्य कहा जाता है ।
मुख्य करने वाली अर्पित (अपेक्षाविशेष) और गौण करनेवाली अनर्पित (अपेक्षान्तर) इन दोनों से सत् (वस्तु) की सिद्धि होती है ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र २९-३०-३१ में सत् का विवेचन तथा इसको सिद्ध करने की विधि का वर्णन किया गया है ।
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