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________________ १४२ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ३ : सूत्र १-२ लोक का असंख्यातवाँ भाग शेष रह जाता है, यानी वे लोक के अन्त तक नहीं पहुँच पाते । जैन दृष्टि से उपमा द्वारा यह लोक - विस्तार का रूपक बताया गया है । राजू के विस्तार की तो कल्पना ही की जा सकती है । आधुनिक शताब्दी के प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने एक कल्पना प्रस्तुत की है । प्रकाश की किरणें प्रति सैकिण्ड १ लाख ८६ हजार मील चलती हैं, यदि यह किरणें संसार की परिक्रमा करें तो इन्हें १२ करोड़ प्रकाश वर्ष लग जायेंगे । इस सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि यह लोक अत्यधिक विस्तृत हैं, इसके ओर-छोर का पता लगाना छद्मस्थ (अल्पज्ञानी) के लिए असम्भव ही है । यह तो केवलज्ञान गम्य ही है । L यह जैन दृष्टि द्वारा लोक का सामान्य वर्णन है । प्रसंगोपात्त होने से यहाँ सूचन किया गया है; क्योंकि आगे इसी अध्याय के के सूत्र लोक से सम्बन्धित हैं । विशेष वर्णन उन सूत्रों के I आगम वचन - अण्णमण्णस्स कायं अभिहणमाणा वेयणं उदीरेंति....... । इत्यादी । -- जीवाभिगम, प्र०३, उ०२, सूत्र ८९ इमेहिं विविहेहिं आउहे हिं..... असुभेहिं वेउव्विएहिं पहरणसत्ते हिं अणुबन्ध तिव्ववेरा परोप्परवेयणं उदीरेति । तथा चौथे अध्याय साथ किया जायेगा। -- प्रश्नव्याकरण, अधर्मव्दार १, काधिकार ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया णिच्चंधयारतमसा... असुभा णरगा असुभाओ णरगेसु वेअणाओ । प्रज्ञापना पद २, नरकाधिकार नेरइयाणं तओ लेसाओ पण्णता, तं जहा - कण्हलेस्सा नीललेस्सा काऊ लेस्सा | Jain Education International - स्थानांग, स्थान३, उ०१, सूत्र १३२ अतिसीतं, अतिउण्हं, अतितण्हा, अतिखुहा, अतिभयं वा, णिरए रइयाणं दुक्खसयाइं अविस्सामं । - जीवाभिगम, प्रति० ३, सूत्र ९५ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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