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जीव-विचारणा १२५ आहारक शरीर की विशेषताएँ - शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं चतुर्दशपूर्वधरस्यैव । ४९।
(आहारकशरीर चतुर्दशपूर्वधर (संयती श्रमण) के ही होता है और यह शुभ, शुद्ध तथा व्याघातरहित होता है ।)
विवेचन- आहारकशरीर की कई विशेषताएँ है -
(१) यह कर्मभूमि में गर्भ से उत्पन्न हुए सम्यग्दृष्टि ऋद्धि प्राप्त श्रमण को ही होता है ।
(२) वह संख्यात वर्ष की आयु वाला होना चाहिए । (३) यह शुभ पुद्गलो से निर्मित होता है, अत्यधिक मनोज्ञ होता है (४) यह विशुद्ध होता है ।
(५) यह न किसी को व्याघात पहंचाता है और न किसी भी पदार्थ से आहत होता है ।
(६) इसका प्रयोजन सिर्फ एक ही है -केवली भगवान के दर्शन करके हृदयगत शंका का निवारण करना ।
७) इसका प्रमाण एक हाथ और आकार समचतुरस्त्र संस्थान है। इस प्रकार आहारकशरीर में कतिपय ऐसी विशेषताएँ होती हैं, जो अन्य किसी शरीर में नहीं होती। आगम वचन -
तिविहा नपुंसगा पण्णत्ता, तं जहाणेरतियनपुंसगा तिरिक्खजोणिय-नपुसंगा मणुस्स नपुंसगा ।
- स्थानांग ३, उ. १, सूत्र १२१ (नपुंसक तीन प्रकार के होते हैं - (१) नारकनपुंसक (२) तिर्यंचनपुंसक और (३) मनुष्यनपुंसक । गोयमा ! इत्थीवेया पुरिसवेया णो णपुंसगवेया ....। जहा असुरकु मारा तहा वाणमंतरा / जोइसिय वेमाणिया वि
___ -समवायांग, वेदाधिकरण सूत्र १५६ (गौतम ! वह (असुरकुमार) स्त्री और पुरुष वेद वाले ही होते हैं, नपुंसक वेदवाले नहीं । असुरकुमारों के सामान ही भवनवासी, व्यंतर
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