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जीव-विचारणा
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(सभी जीव दो प्रकार के होते हैं - सिद्ध और असिद्ध अथवा संसारी
और असंसारी ।)
जीवों के मूल प्रकार
संसारिणो मुक्ताश्च ।१०।
(वे जीव) संसारी और मुक्त-दो प्रकार के हैं ।
विवेचन कर्मों के बंधन में पड़े हुए, उनके वशीभूत हुए जो जीव जन्म-मरण करते हुए, इस चार गति रूप संसार में संसरण - परिभ्रमण करते हैं, वे जीव संसारी हैं । और जो कर्मों से रहित जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्त होकर अविचल, अविनाशी, सुख में लीन हैं, वे सिद्ध जीव हैं ।
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संसार की विचारणा दो प्रकार से की जाती है - (१) द्रव्य और (२) भाव अथवा (१) अनतरंग तथा (२) बाह्य
बाह्य संसार तो चार गति ( नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव) रूप है, जिनमें संसारी जीव भ्रमण करता रहता है ।
किन्तु इस बाह्य संसार का कारण है राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ रूप अन्तरंग संसार ।
जब तक अन्तरंग संसार का - मोह, राग-द्वेष आदि का नाश नहीं होता तब तक बाह्य संसार का भी नाश नहीं होता और जीव संसारी ही बना रहता है । इन दोनों प्रकार के संसार के नाश होने पर ही जीव मुक्त अथवा सिद्ध हो पाता है ।
आगम वचन
दु विहानेरइया पण्णत्ता
सन्नी चेव असन्नी चेव ।
एवं पंचिन्दिया सव्वे
विगलिन्दियवज्जा जाव वाणमंतरा वेमाणिया
- स्थानांग, स्थान २, उ. १, सूत्र ७९
( नारक दो प्रकार के होते हैं (१) संज्ञी और (२) असंज्ञी । इसी प्रकार विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) के अतिरिक्त व्यन्तर और वैमानिक तक सभी पंचेन्द्रियों (मनुष्य और तिर्यच सहित) के संज्ञी और असंज्ञी - दो भेद होते हैं ।)
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