SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव-विचारणा ९३ (सभी जीव दो प्रकार के होते हैं - सिद्ध और असिद्ध अथवा संसारी और असंसारी ।) जीवों के मूल प्रकार संसारिणो मुक्ताश्च ।१०। (वे जीव) संसारी और मुक्त-दो प्रकार के हैं । विवेचन कर्मों के बंधन में पड़े हुए, उनके वशीभूत हुए जो जीव जन्म-मरण करते हुए, इस चार गति रूप संसार में संसरण - परिभ्रमण करते हैं, वे जीव संसारी हैं । और जो कर्मों से रहित जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्त होकर अविचल, अविनाशी, सुख में लीन हैं, वे सिद्ध जीव हैं । 1 संसार की विचारणा दो प्रकार से की जाती है - (१) द्रव्य और (२) भाव अथवा (१) अनतरंग तथा (२) बाह्य बाह्य संसार तो चार गति ( नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव) रूप है, जिनमें संसारी जीव भ्रमण करता रहता है । किन्तु इस बाह्य संसार का कारण है राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ रूप अन्तरंग संसार । जब तक अन्तरंग संसार का - मोह, राग-द्वेष आदि का नाश नहीं होता तब तक बाह्य संसार का भी नाश नहीं होता और जीव संसारी ही बना रहता है । इन दोनों प्रकार के संसार के नाश होने पर ही जीव मुक्त अथवा सिद्ध हो पाता है । आगम वचन दु विहानेरइया पण्णत्ता सन्नी चेव असन्नी चेव । एवं पंचिन्दिया सव्वे विगलिन्दियवज्जा जाव वाणमंतरा वेमाणिया - स्थानांग, स्थान २, उ. १, सूत्र ७९ ( नारक दो प्रकार के होते हैं (१) संज्ञी और (२) असंज्ञी । इसी प्रकार विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) के अतिरिक्त व्यन्तर और वैमानिक तक सभी पंचेन्द्रियों (मनुष्य और तिर्यच सहित) के संज्ञी और असंज्ञी - दो भेद होते हैं ।) Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy