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________________ जीव-विचारणा ९१ इन तीनों भावों में बाहर का कोई भी निमित्त नहीं पड़ता, ये जीव के स्वाभाविक भाव हैं; इसीलिए इन्हें पारिणामिक भाव कहा गया है । (चार्ट पेज ८८-८९-९० पर दिये हैं ।) । आगम वचन - उवओगलक्खणे जीवे । - भगवतीसूत्र, श. २, उद्देशक १० जीवो उवओगलक्खणो । - उत्तरा. २८/१० (जीव का लक्षण उपयोग है।) जीव का लक्षण - उपयोगो लक्षणम् ।८। (जीव का लक्षण उपयोग है ।) विवेचन - लक्षण द्वारा किसी भी वस्तु को अन्य वस्तुओं से अलग करके पहचाना जा सकता है, यही लक्षण ही विशेषता है । लक्षण के दो भेद हैं - (१) आत्मभूत और (२) अनात्मभूत । आत्मभूत लक्षण वस्तु के अन्दर ही होता है और अनात्मभूत वस्तु के बाहर रहकर उसके साथ-साथ चलता है; जैसे-संसारी जीव का लक्षण शरीर ह । शरीर, आत्मा से बाह्य होते हुए भी सदैव उसके साथ-साथ रहता है । किन्तु 'उपयोग' जीव का आत्मभूत लक्षण है । यह संसारी और सिद्ध दोनों ही दशाओं में रहता है । जीव का यह लक्षण त्रिकाल में भी बाधित नहीं हो सकता और असंभव, अव्याप्ति, अतिव्याप्ति आदि दोषों से रहित, पूर्ण निर्दोष है । बोध ज्ञान, चेतना, संवेदन ये सभी उपयोग के पर्यायवाची शब्द है । आगम वचन - दुविहे उवओगे पण्णत्ते-सागारोवओगे, अणागारोवओगे य । सागारोवओगे अठविहे पण्णत्ते । ...... अणागारोव ओगे चउविहे पण्णत्ते । प्रज्ञापना सूत्र पद २९ (उपयोग दो प्रकार का कहा गया है - (१) साकार उपयोग (२) अनाकार उपयोग । साकार उपयोग ८ प्रकार का है, । अनाकार उपयोग चार प्रकार का है ।) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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