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विवेचन -- औपशमिक भाव के
८० तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २ : सूत्र १ यह अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता; इसलिए यहाँ जीव के जीवत्व गुण की अपेक्षा उसके भावों का वर्णन हुआ है । भावों के भेदों की संख्या -
द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ।।२।
(उक्त पाँच भावों के) अनुक्रम से दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन भेद हैं ।
विवेचन - औपशमिक भाव के दो भेद हैं, क्षायिक के नौ (नव), मिश्र (क्षायोपशमिक) के अठारह, औदयिक के इक्कीस और पारिणामिक भाव के तीन भेद हैं । यो कुल भाव ५३ हैं । आगम वचन -
उवसमिए दुविहे पण्णत्ते तं जहाउवसमे अ उवसमनिप्फण्णे अ... उवसमिया सम्मत्तलद्धी उवसमिआ चरित्तलद्धी ।
- अनुयोग द्वार सूत्र २३९, २४१ औपशमिक (भाव) दो प्रकार का है, यथा -
(१) उपशम और (२) उपशमनिष्पन्न... उपशमिक सम्यक्त्व लब्धि, उपशमिक चारित्रलब्धि । औपशमिक भाव के भेद -
सम्यक्त्व चारित्रे । ३। औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र- ये दो औपशमिक भाव हैं।
विवेचन - औपशमिक सम्यक्त्व के विषय में तो विस्तृत विवेचन प्रथम अध्याय के चौथे सूत्र 'तन्निसर्गाधिगमाद्वा' के अन्तर्गत किया जा चुका है । किन्तु यहाँ औपशमिक चारित्र का भी उल्लेख सूत्र में हुआ है ।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है सम्यक्त्व के उपरान्त ही चारित्र होता है, यहाँ भी वही नियम है । कहा भी है -
सम्यग्ज्ञानवतः कर्मादानहेतु क्रियोपरमः सम्यक् चारित्रम् ।
सम्यग्ज्ञान के उपरान्त कर्मादान (कर्मों के आगमन) की क्रिया से उपरत हो जाना सम्यक्चारित्र है ।
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