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________________ द्वितीय अध्याय जीव विचारणा (SOUL) उपोद्घात प्रथम अध्याय में सात तत्त्वों का नाम निर्देश किया है और बताया है कि इन तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन और यथार्थ एवं विशद ज्ञान सम्यक्ज्ञान है । प्रथम अध्याय में सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान (साथ ही ज्ञानमिथ्याज्ञान- सामान्यज्ञान) का वर्णन करके स्वरूप समझा दिया गया है अब इस दूसरे अध्याय से सात तत्त्वों में से प्रथम तत्त्व 'जीव' का वर्णन प्रारम्भ किया जा रहा है । प्रस्तुत अध्याय में जीवों के भाव, जीवों के भेद - प्रभेद, इन्द्रियाँ, मरण के समय की गति, जीव के शरीर, जन्म ग्रहण करने की योनियाँ, लिंग आदि का वर्णन किया गया है । आगमन वचन - छव्विधे भावे पण्णत्ते J ओदइए, उवसमिते, खत्तिते, खओवसमिते, पारिणामिते, सन्निवाइए । Jain Education International अनुयोग द्वार, सूत्र २३३, स्थानांग स्थान ६, सूत्र ५३७ - भगवती, १४/१७ भाव छह प्रकार के होते हैं - ( १ ) औदयिक, (२) औपशमिक, (३) क्षायिक, (४) क्षायोपशमिक, (५) पारिणामिक और (६) सन्निपातिक । जीव के भाव (परिणाम) औपशमिक क्षायिक भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिक - पारिणामिको च ।१ । (१) औपशमिक, (२) क्षायिक, (३) क्षायोपशमिक (मिश्र), (४) और दयिक और (५) पारिणामिक - यह पाँचों ही भाव जीव के स्वतत्त्व हैं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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