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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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संज्ञा के विवेकात्मक-पक्ष को प्रस्तुत करती हैं। संज्ञा के दोनों पक्षों की चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं, अतः अभी यहाँ विस्तार से वर्णन करना उचित नहीं।
"संज्ञा' शब्द की व्युत्पत्ति सम् + ज्ञान से भी मानी जाती है। यह प्राणी में रही हुई विचार-विमर्श की सूचक है। यही कारण था कि जैन आचार्य उमास्वाति 1239 ने तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञान के जिन पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख किया है, उनमें संज्ञा शब्द को मतिज्ञान का पर्यायवाची माना है। इस प्रकार, संज्ञा विवेक-सामर्थ्य की भी सूचक है।
ऐन्द्रिकज्ञान और विमर्शात्मकज्ञान भी संज्ञा के अन्तर्गत ही आते हैं, यही कारण है कि आचार्यों ने ओघ और धर्म को संज्ञा के रूप में ही स्वीकार किया है। इस प्रकार, हम यह कह सकते हैं कि जैनदर्शन में संज्ञा शब्द जीववृत्ति और विवेकवृत्ति-दोनों का ही परिचायक रहा है। वह यह बताता है कि प्राणी जो भी व्यवहार करता है, उसके पीछे कोई भी संज्ञा अवश्य रहती है। यद्यपि वासनात्मक और विवेकात्मक-संज्ञाएँ व्यवहार की प्रेरक रही हैं, फिर भी वासना की अपेक्षा विवेक को प्रधानता देने के उद्देश्य से संज्ञा विशेष महत्त्वपूर्ण मानी गई है। जैनदर्शन में इन संज्ञाओं को दो भागों में बांटा गया है, पहली- उदयजन्य, जो कर्म के उदय से प्राप्त होती हैं और दूसरी- क्षयोपशमजन्य, जो कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होती हैं।
उदयजन्य संज्ञाएँ मोहनीयकर्म के उदय से होती हैं, इसलिए वे संसार का कारण भी होती हैं, किन्तु ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय के क्षयोपशम से जो संज्ञाएँ उत्पन्न होती हैं, वे प्राणी के विवेकात्मक-पक्ष पर विशेष बल देती हैं। विवेक-आधारित संज्ञाओं के तीन प्रकार माने गए हैं। 1. हेतुवादोपदेशिकी-संज्ञा, 2. दीर्घकालिक-संज्ञा 3. दृष्टिवादोपदेशिकीसंज्ञा।24
1. हेतुवादोपदेंशिकी-संज्ञा - वह संज्ञा, जिसमें वर्तमान के संदर्भ में ही ज्ञान, चिंतन और उपयोग हो और दुःख–मुक्ति का एवं सुख-प्राप्ति का उद्देश्य हो, उसे हेतुवादोपदेशिकी-संज्ञा कहते हैं, जैसे
1239 मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् । – तत्त्वार्थसूत्र - 2/13
दण्डक प्रकरण, गाथा-33
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