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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 51 जैन - आचार्यों ने संज्ञाओं में जो धर्मसंज्ञा का उल्लेख किया है, वह बौद्धिकविवेक ही है । विवेकपूर्वक आचरण करना ही धर्म है। धर्म का मूल विनय है और धर्म सद्गति का मूल है।" इस प्रकार, संज्ञा की अवधारणा के मूल में वासना और विवेक - दोनों की ही सत्ता है । आहार, भय, मैथुन, परिग्रह आदि संज्ञाएं जहाँ प्राणी के वासनात्मक पक्ष को या उसकी दैनिक - आवश्यकता को सूचित करती हैं, वही धर्मसंज्ञा उसके बौद्धिक - विवेक को सूचित करती है । यह सत्य है कि प्राणीय - व्यवहार में वासना और विवेक – दोनों ही तथ्य रहते हैं, किन्तु जैन - आचार्यों का यह निर्देश रहा है कि जीवन के वासनात्मक पक्ष पर विवेक का नियंत्रण हो और दैनिक - आवश्यकता की पूर्ति विवेकपूर्ण ढंग से की जाए, इसीलिए जैनधर्म में व्यवहार और आचरण की अनेक मर्यादाएं निश्चित की गई हैं। यह सत्य है कि क्षुधा की पूर्ति के लिए आहार करना ही होगा, पर कब, कितना और कैसा आहार करना होगा, यह विवेक ही बताएगा । मानवीय - व्यवहार में वासना और विवेक का संतुलन आवश्यक है । वासना प्रेरक है और विवेक निर्यामक । अन्य धर्म-दर्शनों में संज्ञा की अवधारणा वासना और विवेक - दोनों ही प्राणी - व्यवहार के प्रेरक - तत्व हैं। भारतीय - . धर्मदर्शन में भी वासना, कामना, इच्छा, आकांक्षा, आशा, लोभ, तृष्णा और आसक्ति को व्यवहार के प्रेरक - तत्त्व के रूप में माना गया है। भारतीय - दर्शन में इन सभी का सामान्य अर्थ मन और इन्द्रियों के माध्यम से विषयों की चाह है। जैसा हमने पूर्व में उल्लेख किया हैं कि भारतीय-दर्शन और धर्म जीवन के दो पहलू मानता है, एक- वासनात्मक और दूसरा - विवेकात्मक, यद्यपि ये दोनों ही व्यवहार के प्रेरक - रूप हैं । जैनदर्शन में संज्ञा का व्यापक अर्थ में प्रयोग हुआ है। उसमें वासना और विवेक - दोनों ही समाए हुए हैं, जबकि पाश्चात्य - मनोविज्ञान नीतिशास्त्र और पाश्चात्य - नीतिशास्त्र वासना को ही व्यवहार के प्रेरक के रूप में स्वीकार करता है, यद्यपि आधुनिक मान्यतावादी - दर्शन यह अवश्य स्वीकार करता है कि मनुष्य में वासना के अतिरिक्त विवेकशीलता, 51 49 धम्मस्स मूलं वियं वदंति, धम्मो य मूलं खलु सोग्गईए । बृहत्कल्पभाष्य, 4441 - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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