________________
528
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
जैनदर्शन के अनुसार, व्यक्ति का विवेक चाहे कितनी ही प्रसुप्त अवस्था में क्यों न हो, विवेक का एक पक्ष तो अवश्य ही उद्घाटित रहता है, किन्तु यह विवेक प्राणी के सामान्य व्यवहार से जुड़ा है या आध्यात्मिक व्यवहार से- यह विचारणीय प्रश्न है। जैनदर्शन में ओघनियुक्ति में नैतिक एवं धार्मिक-आचार के सामान्य नियमों का उल्लेख है, अत: ओघ को विवेकपूर्ण आचार के सामान्य नियमों का वाचक भी माना जा सकता है। इस प्रकार, जैन-आचार्यों ने ओघनियुक्ति नामक ग्रंथ में ओघ को वासनात्मक-पक्ष से न जोड़कर मात्र सदाचारात्मक विवेकपूर्ण जीवन से भी जोड़ा है। इसे आचार के नियमों की सामान्य समझ के रूप में बताया गया है। 1227 इस प्रकार, ओघसंज्ञा को वासना और विवेक -दोनों से सम्बन्धित माना जा सकता है।
जैनदर्शन में संज्ञाओं का एक षोडशविध वर्गीकरण भी मिलता है,228 इसमें से सुख, दुःख, मोह, शोक और विचिकित्सा -इन पांच संज्ञाओं को मिला लें, तो सोलह में से चौदह संज्ञाएँ मूलतः जैविक-मूल-प्रवृत्तियाँ हैं, जो जीवन के वासनात्मक-पक्ष की ही परिचायक हैं।
ज्ञातव्य है कि संज्ञाओं के इस षोडशविध वर्गीकरण में पूर्व की चार और दस संज्ञाएँ भी समाहित हो जाती हैं। इस प्रकार, षोडश संज्ञाओं में ओघ को अंशतः और धर्म को पूर्णतः प्राणी के विवेकात्मक-पक्ष से जोड़ा जा सकता है, शेष सभी चौदह संज्ञाएँ प्राणी के वासनात्मक-पक्ष से ही संबंधित हैं।
धर्मसंज्ञा को हम किस अर्थ में गृहीत करें, यह एक विचारणीय-पक्ष है। 'धर्म' शब्द वस्तुतः स्वभाव का वाचक है, अतः प्राणी-स्वभाव को भी धर्म कहा जा सकता है। इस दृष्टि से धर्म भी जैविक-मूलवृत्ति के रूप में स्थापित होता है, किन्तु जैन-आचार्यों ने धर्म को केवल प्राणी-स्वभाव के रूप में ही व्याख्यायित नहीं किया, अपितु वे उसे एक विवेकात्मक और सदाचारात्मक पक्ष के रूप में भी प्रतिपादित करते हैं, इसलिए धर्म-संज्ञा प्राणी के विवेकात्मक पक्ष से संबंधित है।
1227
ओघनियुक्ति-2
1228
1) आचारांगसूत्र- 1/1/2 विवेचन में। 2) प्रशमरति परिशिष्ट, भाग-2, श्री भद्रगुप्तविजयजी, पृ. 284 वत्थु सहावो धम्मो, भाव संग्रह, गाथा 373
1229
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org