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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
इन संज्ञाओं को आधुनिक मनोविज्ञान मूलप्रवृत्तियों और संवेगों के रूप में मानता है और ये दोनों मनोविज्ञान की दृष्टि से व्यवहार के प्रेरक हैं। पौर्वात्य एवं पाश्चात्य-मनोवैज्ञानिक इस विषय में एकमत हैं कि व्यवहार का प्रेरक-तत्त्व वासना या काम है और वे मूलभूत व्यवहार के प्रेरक-तत्त्व हैं।
___ संज्ञाओं के इस षोड़शविध वर्गीकरण में, अथवा दशविध वर्गीकरण में, धर्मसंज्ञा और ओघसंज्ञा का भी विवेचन किया गया है। धर्म शब्द को अनेक रूपों में व्याख्यायित किया गया है। एक ओर उसे स्वभाव माना गया है तथा दूसरी ओर वह आचरण का प्रतीक भी है। धर्म जीवन में जीने की वस्तु है और इस अर्थ में व्यवहार से पृथक नहीं है। दूसरी बात यह भी है कि धार्मिकजन और अधार्मिकजन में भिन्नता होती है, अतः धर्म किसी-न-किसी रूप में व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करता है, इसीलिए कहा गया है कि एक ही धर्म को प्रत्येक प्राणी अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार पृथक्-पृथक् रूप से ग्रहण करता है।
लोकसंज्ञा का अर्थ यह है कि सामान्यजन के या लौकिक-व्यवहार से प्रेरित होकर कार्य करना। जैन-आगम में मुनि को बार-बार यह निर्देश दिया गया है कि वह लोकसंज्ञा से प्रेरित न हो। इसका एक अर्थ यह भी है कि व्यक्ति लोक-व्यवहार से प्रेरित होता है। मनुष्य ही नहीं, अनेकों विकसित प्राणियों के व्यवहार में नकल की प्रवृत्ति पाई जाती है, जो इसी बात की सूचक है कि वे प्राणी दूसरों के व्यवहार से प्रभावित होकर इस प्रकार का प्रयत्न करते हैं। इसी प्रकार, ओघसंज्ञा भी एक प्रकार से सामान्य व्यवहार के अनुसरण को सूचित करती है। यह सत्य है कि जन-सामान्य के व्यवहार के पीछे कोई-न-कोई संज्ञा निहित होती है। ओघसंज्ञा, लोकसंज्ञा से, बहुत भिन्न नहीं है। सामान्यता का तत्त्व सभी प्राणियों में पाया जाता है।
___ जैसे आहार सभी प्राणियों की मूलभूत आवश्यकता है और व्यवहार को प्रभावित करता है, वैसे ही प्राणी की सामान्य प्रवृत्ति ही ओघ संज्ञा है और वह कहीं-न-कहीं हमारे प्राणीय-व्यवहार को अभिव्यक्त करती है।
49 अणुसासणं पुढो पाणी; - सूत्रकृतांगसूत्र -1/15/11
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