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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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अध्याय - 16
BYHET {Conclusion}
प्राणी-व्यवहार गतिशील होता है। पाश्चात्य मनोविज्ञान में इस प्राणीय- व्यवहार को गति देने वाले प्रेरक-तत्त्वों को मूलप्रवृत्तियों Instincts}, संवेगों Emotions} एवं स्थाई-भावों (Sentiments} के रूप में जाना जाता है। पाश्चात्य- मनोविज्ञान के प्राणीय-व्यवहार के इन प्रेरक-तत्त्वों को जैनदर्शन में 'संज्ञा' के नाम से जाना जाता है। आधुनिक मनोविज्ञान में ये प्रवृत्तियाँ जन्मजात मानी गई हैं। जैनदर्शन इनमें से आहार, भय, मैथुन, परिग्रह आदि कुछ प्रवृत्तियों को जन्मजात मानता है, तो धर्म आदि कुछ प्रवृत्तियों को अर्जित भी मानता है।
जैनदर्शन के अनुसार, इन सभी प्रवृत्तियों का संबंध लौकिक-जीवन से ही है। यद्यपि जैनदर्शन में जिन्हें संज्ञा कहा गया है, वे आधुनिक मनोविज्ञान की मूलप्रवृत्तियों, संवेगों और स्थाई भावों से भिन्न नहीं हैं, फिर भी इनमें आंशिक समानता ही देखी जाती है। जैनदर्शन के अनुसार, ये सभी प्रवृत्तियाँ संसारी-जीवों में ही पाई जाती हैं, जीवों में नहीं, क्योंकि प्रायः ये सभी देहाश्रित हैं, किन्तु जैनदर्शन का यह भी मानना है कि प्राणी
और विशेष रूप से मनुष्य का यह दायित्व है कि वह इनसे ऊपर उठने का प्रयत्न करे, क्योंकि वह इन वासनाजन्य जैविक-मूल-प्रवृत्तियों से ऊपर उठ सकता है।
संज्ञा शारीरिक आवश्यकता और मानसिक-संचेतना है, जो अभिलाषा और आकांक्षा के रूप में अभिव्यक्त होती है और प्राणी को उस दिशा में व्यवहार करने को प्रेरित करती है। सामान्यतया, हम कह सकते हैं कि संज्ञाओं या व्यवहार के अभिप्रेरकों से बाधित होकर ही जीव इस लोक में कर्म करता है और उन कर्मों के परिणामस्वरूप सांसारिक-सुख या दुःख को प्राप्त होता है। मात्र यही नहीं, इन्हीं संज्ञाओं की उपस्थिति के कारण व्यक्ति तनावग्रस्त भी होता है। जैनदर्शन की मान्यता यह है कि क्षुद्र प्राणी से लेकर मनुष्य तक- सभी संसारी-जीवों में आहार, भय, मैथुन और
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