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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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(चित्त-सरलता), 16. कायप्रागुण्य (समर्थता), 17. चित्तप्रागुण्य, 18. कायऋजुता, 19. चित्तऋजुता, 20. सम्यक् वाणी, 21. सम्यक् कर्मान्त, 22. सम्यक् आजीव, 23. करुणा, 24. मुदिता और 25. अमोह (प्रज्ञा)।215
इस प्रकार ये बावन चैतसिक-धर्म कुशल, अकुशल और अव्याकृत-कर्मों के प्रेरक हैं।
जहाँ तक जैनदर्शन की संज्ञाओं का प्रश्न है, वे भी कर्म की प्रेरक हैं। इन बावन चैतसिकों में जो चौदह अकुशल चैतसिक हैं, उनकी तुलना हम जैनदर्शन की संज्ञाओं से कर सकते हैं। इन चौदह चैतसिकों में मोह, लोभ, मान और विचिकित्सा - ये चार अकुशल चैतसिक जैनदर्शन की सोलह संज्ञाओं की अवधारणा में पाए जाते हैं।
जैनदर्शन की संज्ञाओं में आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, सुख, दुःख, शोक के नाम यद्यपि इन चैतसिकों में नहीं पाए जाते हैं, किन्तु गहराई से विचार करने पर ये सभी बौद्धधर्म में भी मान्य हैं। जहाँ तक जैनधर्म में लोक, ओघ और धर्म-संज्ञा का प्रश्न है, उनमें से धर्म और लोक को हम कुशल चैतसिकों में मान सकते हैं। जैनदर्शन की संज्ञा की अवधारणा और बौद्धदर्शन के चैतसिकों की अवधारणा का सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि दोनों को ही कर्म का प्रेरक माना गया है।
जैनदर्शन में जो षोडषविध संज्ञाओं का वर्गीकरण मिलता है, उसमें धर्म और ओघ-संज्ञा को कुशल चैतसिकों में और शेष को अकुशल चैतसिकों में माना जा सकता है, क्योंकि बौद्धदर्शन में शोभन या कुशल चैतसिकों में श्रद्धा और जो आष्टांगिक मार्ग का निर्देश है, वह सब धर्मसंज्ञा के अंतर्गत आ जाते हैं और अमोह (प्रज्ञा) को हम ओघसंज्ञा से जोड़ सकते हैं।
डॉ. सागरमल जैन 1216 ने भी अपने शोधप्रबंध में कहा है कि जैनदर्शन में स्वीकृत लगभग सभी संज्ञाएं बौद्धदर्शन के इस वर्गीकरण में
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सद्धा सति हिरी ओतप्पं अलोभो अदोसो तत्र मज्झत्तता कायप्पस्सद्धि चित्तप्पस्सदि कायलहुता चित्तलहुता कायमुदुता चित्तमुदुता कायकम्मञता चितकम्मन्नता कायपागुञता चित्तपागुञ्जन्नता, कायुजुकता चित्तुजुकता चेति एकनवीसति मे चेतसिका सोभन साधारणा नाम। -अभिधम्मत्थ संगहो, चेतसिक काण्डो।
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