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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
मलिन क्षेत्र, गृहादि में मलिनता, दरिद्रता देखकर घृणा के भाव जाग्रत होते हैं। वस्तुतः, द्रव्यविचिकित्सा ही भावविचिकित्सा को उत्पन्न करती है।
2. भावविचिकित्सा
मूलाचार ग्रंथ में कहा गया है - क्षुधादि बाईस परीषहों में संक्लेश-परिणाम करना भावविचिकित्सा है, 1200 अर्थात् हृदय में. घृणा के भावों का होना भावविचिकित्सा है।
___ भावविचिकित्सा, वस्तुतः अपने में अपनी प्रशंसा द्वारा अपने गुणों की उत्कर्षता के साथ-साथ जो अन्य के गुणों के अपकर्ष में बुद्धि होती है, उसे भावविचिकित्सा कहते हैं। 1201
भावविचिकित्सा के कारण व्यक्ति यह सोचता है कि जैनमत में सब अच्छी बातें हैं, परंतु वस्त्र के आवरण से रहितता अर्थात् नग्नता और जलस्नान आदि का न करना -यही एक दूषण है।'
विचिकित्सा (जुगुप्सा) द्रव्य से हो या भाव से -दोनों को सम्यकदर्शन का अतिचार माना गया है। द्रव्यविचिकित्सा को साफ-सफाई आदि के प्रयासों से हटाया जा सकता है, पर जो भावरूपेण विचिकित्सा मन में बैठ जाती है, उसे हटाने में थोड़ा परिश्रम लगता है। विशेष प्रकार के ध्यान, एकत्व-स्वरूप और अशुचि भावना का स्मरण करके ही भावविचिकित्सा को हटाने में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
___ आगे, हम विचिकित्सा पर किस प्रकार विजय प्राप्त की जा सकती है, इसकी चर्चा करेंगे।
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1200 खुदादिए भावविदिर्गिछा। - मूलाचार, गाथा 252
आत्मन्यात्मगुणोत्कर्षबुद्धयां स्वात्मप्रशंसनात् परत्राप्यपकर्षेषु बुद्धिर्विचिकित्सता स्मृता।
- पंचाध्यायी, उत्तरार्द्ध, श्लोक 578 1202
यत्पुनजैनसमये सर्व समीचीनं परं किन्तु वस्त्राप्रवरणं जलस्नानादिकं च न कुर्वन्ति तदैव दूषणम्। -द्रव्यसंग्रह टीका, गाथा -41/172/11
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