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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
है। मोह तथा राग परस्पर एक-दूसरे के कारण हैं, अतः राग, द्वेष और मोह -ये तीनों ही जैन-परम्परा में बन्धन के मूल कारण हैं।
बौद्ध-परम्परा में भी लोभ (राग), द्वेष और मोह को बन्धन का कारण माना गया है। 1122
इस सम्बन्ध में आचार्य नरेन्द्रदेव लिखते हैं - "लोभ और द्वेष का हेतु मोह है, किन्तु पर्याय से राग, द्वेष भी मोह के हेतु हैं। 1123
गीता के अनुसार, आसुरी-सम्पदा बन्धन का हेतु है। 124 उसमें दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, पारुष्य एवं अज्ञान को आसुरी-सम्पदा कहा गया है। श्रीकृष्ण कहते हैं - दम्भ, मान, मद से समन्वित आसक्ति (कामनाओं) से युक्त तथा मोह (अज्ञान) से मिथ्यादृष्टित्व को ग्रहण कर. प्राणी असदाचरण से युक्त हो संसार–परिभ्रमण करते हैं। 125 वहाँ कहा गया है कि मोह-जाल में आवृत्त और कामभोगों में आसक्त पुरुष अपवित्र नरकों में गिरते हैं। 1126 इच्छा, द्वेष और तज्जनित मोह से सभी प्राणी' अज्ञानी बन संसार के बन्धन को प्राप्त होते हैं। 127 डॉ.सागरमल जैन ने अपने शोध-प्रबंध में कहा है -यहाँ गीताकार राग, द्वेष और मोह के इन तीन कारणों की व्याख्या ही नहीं करता, वरन् इच्छा-द्वेष से उत्पन्न मोह कहकर जैनदर्शन के समान राग, द्वेष और मोह की परस्पर सापेक्षता को भी अभिव्यक्त कर देता है।1128
सांख्य-योगदर्शन के योगसूत्र में बन्धन या क्लेश के पांच कारण माने गए हैं- 1. अविद्या (मोह), 2. अस्मिता (अहंकार), 3. राग (आसक्ति), 4. द्वेष और 5. अभिनिवेश (मृत्यु का भय)।129 इनमें भी अविद्या (मोह) ही
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अंगुत्तरनिकाय- 3/33, पृ. 137 बौद्धधर्मदर्शन, पृ.25 गीता – 18/15 वही - 16/10 गीता-16/16 वही- 7/27 गीता (शा)- 7/27 जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ.सागरमल जैन, भाग-1, पृ. 65 अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशा: क्लेशाः । - योगसूत्र- 2/3
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