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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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जाता है; मेरा मोक्ष -यह वाक्य ही गलत है। 'मेरा' मिटने पर ही मोक्ष मिलता है। 1089
धर्म एक अमृत तत्त्व है और वह सार्वजनिक है, सार्वकालिक है, सार्वभौमिक है, सर्वदा और सर्वथा उपादेयरूप है। इस विराट् विश्व में मानव एक सर्वश्रेष्ठ और सर्वज्येष्ठ प्राणी है। उसके अमूल्य जीवन का लक्ष्य मुक्ति-प्राप्ति है। यही उसका चरम और परम साध्य–बिन्दु है। इस साध्य की सिद्धि में धर्म प्रधान आधार है। धर्म वस्तुतः एक ऐसा राजपथ है, जो हमें मुक्ति-प्रासाद में पहंचा देता है। धर्म और मुक्ति -दोनों एक-दूसरे के सम्पूरक हैं। इनका जो संबंध है, वह अभिन्न है, अच्छेद्य और अभेद्य है।
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आत्मज्ञान और विज्ञान, पृ. 71
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