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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व धर्म की जीवन में उपादेयता मनुष्य एक सामाजिक - प्राणी है । समाज से अलग-थलग रहना उसके लिए न उचित है और न ही संभव। समाज में रहते हुए समाज के लिए अधिक-से-अधिक उपयोगी बना रह सके, इसी में उसके जीवन की उपादेयता है, सार्थकता है, जो धर्म से ही संभव है । स्वस्थ चित्त वाले व्यक्तियों से ही स्वस्थ समाज का निर्माण होता है, अस्वस्थ व्यक्ति वही है, जिसका मन विकारों से विकृत रहता है, अतः सुखी - स्वस्थ समाज का निर्माण करने के लिए व्यक्ति-व्यक्ति के चित्त को निर्मल करना नितांत आवश्यक है। एक-एक व्यक्ति स्वस्थ एवं स्वच्छ-चित्त हो, शांतचित्त हो, तो ही समग्र समाज की शांति बनी रह सकती है। धर्म इस व्यक्तिगत शांति के लिए एक अनुपम साधन है और इसी कारण विश्व - शांति का भी एकमात्र साधन है। आदरणीय सत्यनारायणजी गोयनका का कथन है - धर्म न हिन्दू बौद्ध है, धर्म न मुस्लिम जैन । धर्म चित्त की शुद्धता, सुख, शांति और चैन ।। 1073 धर्म का अर्थ संप्रदाय नहीं है। संप्रदाय तो मनुष्य - मनुष्य और वर्ग–वर्ग के बीच दीवारें खड़ी करने एवं विभाजन पैदा करने का काम करता है, जबकि शुद्ध धर्म दीवारों को तोड़ता है, विभाजनों को दूर करता है। शुद्ध धर्म मनुष्य के भीतर समाए हुए अहंभाव अथवा हीनभाव को जड़ से उखाड़ फेंकता है, मानव मन की आशंकाएं उत्तेजनाएं, उद्विग्नताएं दूर करता है और उसे स्वच्छता और निर्मलता के धरातल पर प्रतिष्ठित करता है I धर्म मनुष्य की आध्यात्मिक - आवश्यकता है। यह वह विशिष्ट माध्यम है, जिसके द्वारा मनुष्य सत्य, शिव और सुन्दर के पूर्ण स्वरूप की खोज करता है। धर्म मानव - अस्तित्व के उच्चतम मूल्यों के साथ व्यक्ति का सीधा और सहज सम्पर्क स्थापित करने का साधन है । " धर्म एक आदर्श जीवन-शैली है, सुख से रहने की पावन पद्धति है, शान्ति प्राप्त करने की विमल विद्या है तथा सर्वजन - कल्याणी आचारसंहिता है, " 1073 जो सबके लिए है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है -धर्म जलाशय है और ब्रह्मचर्य घाट (तीर्थ) है, उसमें स्नान करने से आत्मा शान्त, निर्मल और शुद्ध हो धर्म जीवन जीने की कला, सत्यनारायण गोयनका, पृ. 7 Jain Education International - 459 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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