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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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आचारांगसूत्र में भी कहा है- “सभी प्राणियों को सुख प्रिय है, अनुकूल है और दुःख अप्रिय है, प्रतिकूल है।
वस्तुतः, सुखवाद की चर्चा प्रायः सभी भारतीय एवं पाश्चात्य–चिन्तकों ने की है। सुखवादियों के अनेक उपसम्प्रदाय हैं, उनमें मनोवैज्ञानिक-सुखवाद और नैतिक- सुखवाद प्रमुख हैं। मनोवैज्ञानिक-सुखवाद एक तथ्यपरक सिद्धान्त है, जिसके अनुसार यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि व्यक्ति सदैव सुख के लिए प्रयास करता है, जबकि नैतिक-सुखवाद की विचारधारा यह मानकर चलती है कि सुख का अनुसरण करना चाहिए या सुख ही वांछनीय है। नैतिक-सुखवाद के विचारकों में मिल प्रभृति कुछ विचारक नैतिक-सुखवाद को मनोवैज्ञानिक-सुखवाद पर आधारित करते हैं। मिल का कहना है कि कोई वस्तु या विषय काम्य है -इसका प्रमाण यह है कि लोग वस्तुतः उसकी कामना करते हैं। सामान्य सुख काम्य है, इसके लिए इसे छोड़कर कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता है। प्रत्येक मनुष्य सुख की कामना करता है,936 लेकिन सुखवाद को मनोवैज्ञानिक आधार पर खड़ा करने का मिल का यह प्रयास तार्किक-दृष्टि से ठीक नहीं है। यदि सभी मनुष्य स्वभावतः सुख की कामना करते हैं, तो फिर, 'सुख की कामना करना चाहिए'- इस कथन का कोई अर्थ नहीं रह जाता, जबकि नैतिक-आदेश के लिए 'चाहिए' आवश्यक है, लेकिन मनोवैज्ञानिक- सुखवाद इस 'चाहिए' के लिए कोई अवकाश नहीं छोड़ता। इसी कारण, सिजविक तथा समकालीन विचारकों में ड्यूरेंट ड्रेक आदि ने सुखवाद को विशुद्ध नैतिक आधार पर खड़ा किया है।937
नैतिक सुखवादी-विचारधारा की दूसरी मान्यता यह भी है कि वस्तुतः जो सुख काम्य है, वह वैयक्तिक नहीं, वरन् सामान्य सुख है। यह धारणा उपयोगितावाद के नाम से भी जानी जाती है। जैन-आचारदर्शन में नैतिक-सुखवाद के समर्थक कुछ तथ्य मिलते हैं। महावीर ने कई बार यह
935 सब्वे सुहसाया दुक्खडिकला। -आचारांगसूत्र- 1/2/3/81 956 1) नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ. 161 पर उद्धृत
2) जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-1, डॉ. सागरमल जैन, पृ.122 937 कण्टेम्पररि एथिकल थ्योरीज, पृ. 196
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