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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 560 किटकिटाना, होंठ फड़फड़ाना, आँखें लाल हो जाना, व्यवहार का आक्रामक हो जाना क्रोध - संज्ञा है । मन तथा इन्द्रियों के प्रतिकूल किसी भी परिस्थिति के निर्माण में जिस पदार्थ या व्यक्ति का हाथ होता है, उसके प्रति आक्रामक या आवेशात्मक हो जाना क्रोध - संज्ञा है । क्रोध का स्वरूप एवं लक्षण योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्र ने क्रोध का स्वरूप वर्णित किया है । वे लिखते हैं क्रोध शरीर और मन को संताप देता है, क्रोध वैर का कारण है, क्रोध दुर्गति की पगडण्डी है, क्रोध मोक्ष - सुख में अर्गला के समान है। 561 राजवार्त्तिक में कहा गया है करने के क्रूर परिणाम क्रोध हैं। 502 - कुन्दकुन्दाचार्यविरचित समयसार में कहा गया है - " शान्तात्मा से पृथग्भूत यह जो क्षमारहित भाव है, वह क्रोध है ।" 1563 क्रोध की भयंकरता को उपमाओं के माध्यम से धर्मामृत (अनगार) 504 में इस प्रकार बताया गया है क्रोध कोई एक अपूर्व अग्नि है, क्योंकि अग्नि तो मात्र देह को जलाती है, पर क्रोध शरीर और मन दोनों को जलाता है। क्रोध एक अपूर्व अंधकार है; क्योंकि अन्धकार मात्र बाह्य - पदार्थों को देखने में बाधक है, किन्तु क्रोध तो बाह्य और आंतरिक - दोनों चक्षुओं को बन्द कर देता है। क्रोध कोई एक भयंकर ग्रह या भूत है; क्योंकि भूत तो एक जन्म में अनिष्ट करता है, लेकिन क्रोध जन्म-जन्मान्तर में अनिष्ट करता है I 561 562 563 564 अपने और पर के उपघात आदि क्रोध को हम बारूद के समान विस्फोटक और रासायनिक गैस की तरह अत्यन्त ज्वलनशील पदार्थ मान सकते हैं। जिस तरह लकड़ी में लगने वाली आग दूसरों को तो जलाती ही है, पर स्वयं लकड़ी को भी Jain Education International 287 560 क) प्रवचनसारोद्धार, द्वार 146, सा. हेमप्रभाश्री, पृ. 80 ख) सण्णा : मूलवृत्तियों की जैन अवधारणा 2004, पृ. 53 योगशास्त्र, प्रकाश 4, गाथा 9 स्वपरोपघातनिरनुग्रहाहिकौर्य परिणामोऽमर्षः क्रोध । जवार्त्तिक, 8/9 शान्तात्मतत्त्वात्पृथग्भूत एष अक्षमारूपो भावः क्रोधः समयसार, ता.वृ. - 199 / 274/12 धर्मामृत अणगार, अ. 6, श्लोक 4 - एक लेख, डॉ. ऋषभचन्द जैन, शोधादर्श, जुलाई — For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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