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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
इसी प्रकार, पशु-पालन करने वाले गृहस्थ के लिए उनका भी परस्पर सम्बन्ध कराना आवश्यक हो जाता है, अतः इसमें दो करण और तीन योग न कहकर श्रावक को अपनी परिस्थिति एवं सामर्थ्य पर छोड़ दिया गया है। फिर भी, इतना तो निश्चित ही है कि गृहस्थ-साधक को एक करण और एक योग से, अर्थात् अपनी काया से स्वपत्नी के अतिरिक्त शेष मैथुन का परित्याग करना होता है। स्वपत्नीसन्तोषव्रती को निम्न पांच दोषों से बचने का विधान है
1. इत्वरपरिगृहीतागमन -
इत्वरपरि गृहीतागमन, अर्थात् अल्प समय के लिए संभोग के लिए पत्नी के रूप में गृहीत स्त्री से समागम करना, या वाग्दत्ता (अल्पवयस्क पत्नी) के साथ समागम करना। इस प्रकार, गृहस्थ के लिए संभोग हेतु अल्पकाल के लिए परिगृहीत वाग्दत्ता और अल्पवयस्का पत्नी के साथ मैथुन करने का निषेध किया गया है।
2. अपरिगृहीतागमन -
अपरिगृहीता, अर्थात् वह स्त्री जिस पर किसी का अधिकार नहीं है, अर्थात् वेश्या। वेश्या के साथ समागम करना -यह अपरिगृहीतागमन है। कुछ आचार्य अपरिगृहीत का अर्थ करते हैं -किसी के द्वारा ग्रहण नहीं की गई, अर्थात् कुमारी या स्व के द्वारा अपरिगृहीत पर-स्त्री को भी अपरिगृहीत माना गया है, अतः वेश्या, कुमारी अथवा पर-स्त्री से काम-सम्बन्ध रखना व्रती गृहस्थ के लिए निषिद्ध है।
3. अनंगक्रीड़ा -
मैथुन के स्वाभाविक अंगों से काम-वासना की पूर्ति न करके अप्राकृतिक अंगों, जैसे- हस्त, मुख, गुदादि आदि से वासना की पूर्ति करना, अथवा समलिंगी से मैथुन करना, या पशुओं के साथ मैथुन करना आदि। गृहस्थ-साधक को वासनापूर्ति के ऐसे अप्राकृतिक कृत्यों से बचना चाहिए।
356 1) उपासकदशांग- 1/44
2) जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-2, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 281
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