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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
जाता था, जिसे आज की भाषा में 'रिस्क लेना' कहते हैं। भय से डरना नहीं चाहिए। भयभीत मनुष्य के पास भय शीघ्र आता है172 और स्वयं डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है।"
दरअसल, भय की कम या अधिक मात्रा मनुष्य के व्यवहार (Behavior) को प्रभावित करती है। एक ओर बहुत ज्यादा भय खतरे को वास्तविक बना देता है, तो दूसरी ओर, जरा-सा भय सकारात्मक होकर हमें सफलता दिला सकता है। ऐसी स्थिति में, वह भय भय न होकर मात्र साहस के रूप में जीवन में सफलता पाने की प्रेरणा देता है। जैनदर्शन में उसे यतना या सजगता (अप्रमादि) कहा गया है।
उदाहरणस्वरूप, हम कह सकते हैं कि ऑस्ट्रेलिया की टीम क्रिकेट बहुत अच्छा खेलती है, वह विश्वकप विजेता है। यदि भारतीय टीम में यह भय व्याप्त हो गया कि 'हम हार जाएंगे, तो फिर वह भयाक्रान्त होने के कारण मैदान पर लड़खड़ा जाएगी और यदि बिना भय के प्रारंभ से ही सजगता के साथ खेले, तो जीत भी जाएगी। मैं नहीं हारूं- ऐसा भय जरूरी. भी है, नहीं तो खेलने में लापरवाही होगी। इसे ही आगम में 'जियभयाणं कहा गया है।
- भूतकाल का कोई अनुभय भय को पैदा करता है। भय के कई
रूप हैं 17काल का
मौत का भय, शरीर में रोग का भय, पत्नी के दुराचार का भय, पुत्री के शील की रक्षा का भय, सन्तान द्वारा फिजूलखर्ची का भय, अपकीर्ति का भय, दुश्मन का भय, सरकार का भय, टेक्स का भय,
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172 ण भाइयव्, भीतं खु भया अइंति लहुयं । - प्रश्नव्याकरणसूत्र- 2/2 173 भीतो अन्नं पि हु भेसेज्जा, वही- 2/2 174 भावनास्रोत – 2, पृ. 171
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