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________________ lo प्रज्ञापना सूत्र अंगोपांग नाम कर्म कहते हैं। मस्तिष्क आदि शरीर के आठ अङ्ग होते हैं। कहा भी है - 'सीसमुरोयरपिट्ठी-दो बाहू उरुया य अटुंगा' अर्थात् सिर, उर, उदर, पीठ, दो भुजाएं और दो जांघ, ये शरीर के आठ अङ्ग हैं। इन अङ्गों के अंगुली आदि अवयग उपाङ्ग कहलाते हैं और उनके भी अंग - जैसे अंगुलियों के पर्व आदि अंगोपांग हैं। शरीर अंगोपांग नाम कर्म तीन प्रकार का कहा गया है क्योंकि ये अंगोपांग औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर और आहारक शरीर इन्हीं तीन शरीरों के होते हैं। तैजस और कार्मण शरीर के नहीं होते। .. ___ अंगोपांग - अंगों व उपांगों का निर्माण करना। जैसे औदारिक शरीर के अंगों (भुजादि) व उपांगों (अंगुलियों) आदि को बनाना। इसी प्रकार वैक्रिय व आहारक शरीर के भी समझना। तैजस् व कार्मण शरीर के अंगोपांग नहीं होते हैं। क्योंकि जिस प्रकार पानी का कोई आकार-आयतन निश्चित नहीं होता, किन्तु पात्र के अनुसार ग्रहण कर लेता है। इसी प्रकार तेजस् कार्मण शरीर भी जिस गति में जितनी अवगाहना वाला जैसा (औदारिकादि) शरीर होता है, उसी के अनुरूप आकार ग्रहण कर लेते हैं। सरीरबंधणणामे णं भंते! कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते। तंजहा - ओरालियसरीरबंधणणामे जाव कम्मगसरीरबंधणणामे। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! शरीरबन्धन नाम कर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर - हे गौतम! शरीर बन्धन नाम कर्म पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है - औदारिक शरीर बन्धन नाम कर्म यावत् कार्मण शरीर बन्धन नाम कर्म। विवेचन - जिसके द्वारा शरीर बंधे अर्थात् जो कर्म पूर्व में ग्रहण किये हुए औदारिक आदि शरीर और वर्तमान में ग्रहण किये जाने वाले औदारिक आदि पुद्गलों का तैजस आदि पुद्गलों के साथ सम्बन्ध उत्पन्न करे, वह शरीर बन्धन नाम कर्म है। सरीरसंघायणामे णं भंते! कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते।तंजहा - ओरालियसरीरसंघायणामे जाव कम्मगसरीरसंघायणामे। - भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! शरीर संघात नाम कर्म कितने प्रकार का कहा है ? . उत्तर - हे गौतम! शरीर संघात नाम कर्म पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है - औदारिक शरीर संघात नाम कर्म यावत् कार्मण शरीर संघात नाम कर्म। विवेचन - जो शरीर योग्य पुद्गलों को व्यवस्थित रूप से स्थापित करता है उसे संघात नाम कर्म कहते हैं। औदारिक आदि शरीर के भेदों से इसके पांच भेद हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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