SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [5] * **************** स्थानकवासी परंपरा में उन्हीं शास्त्रों को आगम रूप में मान्य किया है जो लगभग दस पूर्वी या उससे ऊपर वालों की रचना हो। नंदी सूत्र में वर्णित अंगे बाह्य कालिक और उत्कालिक सूत्रों का जो क्रम दिया गया है उसका आधार यदि रचनाकाल माना जाय तो प्रज्ञापना सूत्र की रचना दशवैकालिक, औपपातिक, रायपसेणइ तथा जीवाभिगम सूत्र के बाद एवं नंदी, अनुयोग द्वार के पूर्व हुई है। अनुयोगद्वार के कर्ता आर्यरक्षित थे। उनके पूर्व का काल आर्य स्थूलिभद्र तक का काल दश पूर्वधरों का काल रहा है। यह बात इतिहास से सिद्ध है। आर्य श्यामाचार्य इसके मध्य होने वाले युगप्रधान आचार्य हुए। इससे निश्चित हो जाता है कि प्रज्ञापना दशपूर्वधर आर्य श्यामाचार्य की रचना है। प्रज्ञापना सूत्र उपांग सूत्रों में सबसे बड़ा उत्कालिक सूत्र है। इसकी विषय सामग्री ३६ प्रकरणों में विभक्त है जिन्हें 'पद' के नाम से संबोधित किया गया है। वे इस प्रकार हैं - १. प्रज्ञापना पद २. स्थान पद ३. अल्पाबहुत्व ४. स्थिति पद ५. पर्याय पद ६. व्युत्क्रांति पद ७. उच्छ्वास पद ८. संज्ञा पद ९. योनि पद १०. चरम पद ११. भाषा पद १२. शरीर पद १३. परिणाम पद १४. कषाय पद १५. इन्द्रिय पद १६. प्रयोग पद १७. लेश्या पद १८. कायस्थिति पद १९. सम्यक्त्व पद २०. अंतक्रिया पद २१. अवगाहना संस्थान पद २२. क्रिया पद २३. कर्मप्रकृति पद २४. कर्मबंध पद २५. कर्म वेद पद २६. कर्मवेद बंध पद २७. कर्मवेद वेद पद २८. आहार पद २९: उपयोग पद ३०. पश्यत्ता पद . ३१. संज्ञी पद ३२. संयत पद ३३. अवधि पद ३४. परिचारणा पद ३५. वेदना पद ३६. समुद्घात पद। आदरणीय रतनलालजी सा. डोशी के समय से ही इस विशिष्ट सूत्रराज के निकालने की संघ की योजना थी, पर किसी न किसी कठिनाई के उपस्थित होते रहने. पर इस सूत्रराज का प्रकाशन न हो सका। चिरकाल के बाद अब इसका प्रकाशन संभव हआ है। संघ का यह नूतन प्रकाशन है। इसके हिन्दी अनुवाद का प्रमुख आधार आचार्यमलयगिरि की संस्कृत टीका एवं मूल पाठ के लिए संघ द्वारा प्रकाशित सुत्तागमे एवं जंबूविजय जी की प्रति का सहारा लिया गया है। टीका का हिन्दी अनुवाद श्रीमान् पारसमलजी. चण्डालिया ने किया। इसके बाद उस अनुवाद को मैंने देखा। तत्पश्चात् श्रीमान् हीराचन्द जी पींचा, इसे पंडित रत्न श्री घेवरचन्दजी म. सा. "वीरपुत्र" को पन्द्रहवें पद तक ही सुना पाये कि पं. र. श्री वीरपुत्र जी म. सा. का स्वर्गवास हो गया। इसके बाद हमारे अनुनय विनय पर पूज्य श्रुतधर जी म. सा. ने पूज्य पंडित रत्न श्री लक्ष्मीमुनि जी म. सा. को सुनने की आज्ञा फरमाई तदनुसार सेवाभावी श्रावक रत्न श्री प्रकाशचन्दजी सा. चपलोत सनवाड़ निवासी ने सनवाड़ चातुर्मास में म. सा. को सुनाया। पूज्य गुरु भगवन्तों ने जहाँ भी आवश्यकता समझी संशोधन कराने की महती कृपा की। अतएव संघ पूज्य गुरु भगवन्तों एवं श्रीमान् हीराचन्दजी पींचा तथा श्रावक रत्न श्री प्रकाशचन्दजी चपलोत का हृदय से आभार व्यक्त करता है। अवलोकित प्रति का पुन: प्रेस कॉपी तैयार करने से पूर्व हमारे द्वारा अवलोकन किया गया। इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र के प्रकाशन में हमारे द्वारा पूर्ण सतर्कता एवं सावधानी बरती गयी फिर भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy