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बाईसवाँ क्रियापद - जीव में क्रियाओं का सहभाव
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णेरइयस्स आइल्लियाओ चत्तारि परोप्परं णियमा कजंति, जस्स एयाओ चत्तारि कजंति तस्स मिच्छादसणवत्तिया किरिया भइज्जइ, जस्स पुण मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जइ तस्स एयाओ चत्तारिणियमा कज्जति।
कठिन शब्दार्थ - परोप्परं - परस्पर।
भावार्थ - नैरयिक को प्रारम्भ की चार क्रियाएं आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यान क्रिया नियम से होती है। जिसके ये चार क्रियाएं होती हैं, उसको मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया भजना (विकल्प) से होती है, किन्तु जिसके मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया होती है, उसके ये चारों क्रियाएं नियम से होती हैं।
विवेचन - नैरयिक आदि उत्कृष्ट अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते हैं इसके बाद नहीं। इसलिए नैरयिकों में प्रथम की चार क्रियाएं परस्पर नियत रूप से होती है। जिनको ये चारों क्रियाएं होती है उनको मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी क्रिया भजना से होती है क्योंकि मिथ्यादृष्टि को मिथ्यादर्शन क्रिया होती है शेष जीवों को नहीं। जिनको मिथ्यादर्शन क्रिया होती है उनको प्रथम की चार क्रियाएं नियम से होती है क्योंकि मिथ्यादर्शन के सद्भाव में आरंभिकी आदि क्रियाएं अवश्य होती है।
एवं जाव थणियकुमारस्स। . भावार्थ - इसी प्रकार नैरयिकों में क्रियाओं के परस्पर सहभाव के कथन के समान असुरकुमार से स्तनितकुमार तक दसों भवनवासी देवों में क्रियाओं के सहभाव का कथन करना चाहिए।
पुढविकाइयस्स जाव चउरिदियस्स पंच वि परोप्परं णियमा कज्जति।
भावार्थ - पृथ्वीकायिक से लेकर चउरिन्द्रिय तक के जीवों के पांचों ही क्रियाएं परस्पर नियम से होती हैं।
विवेचन - पृथ्वीकाय से लेकर चउरिन्द्रिय पर्यंत जीवों में पांचों क्रियाएं परस्पर नियत रूप से होती है क्योंकि पृथ्वीकायिक आदि जीवों को मिथ्यादर्शन क्रिया अवश्य होती है।
पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स आइल्लियाओ तिण्णि वि परोप्परं णियमा कजंति, जस्स एयाओ कजंति तस्स उवरिल्लिया दोण्णि भइजंति, जस्स उवरिल्लाओ दोण्णि कजंति तस्स एयाओ तिण्णि वि णियमा कजंति। जस्स अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ तस्स मिच्छादसणवत्तिया किरिया सिय कजइ, सिय णो कजइ, जस्स पुण मिच्छादसणवत्तिया किरिया कजइ तस्स अपच्चक्खाण किरिया णियमा कज्जइ।
भावार्थ - पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक को प्रारम्भ की तीन क्रियाएं परस्पर नियम से होती हैं।
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