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पैतीसवां वेदना पद - निदा-अनिदा वेदना द्वार
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उत्तर - हे गौतम! वेदना दो प्रकार की कही गई है। यथा - १. आभ्युपगमिकी और २. औपक्रमिकी । विवेचन - जो वेदना स्वयं अंगीकार की जाती है वह आभ्युपगमिकी वेदना है जैसे - केशलुंचन, आतापना लेना आदि। जो वेदना स्वयं उदय हुए या उदीरणा द्वारा उदय में लाये गये वेदनीय कर्म के अनुभव से होती है वह औपक्रमिकी वेदना कहलाती है।
•णेरड्या णं भंते! किं अब्भोवगमियं वेयणं वेदेंति उवक्कमियं वेयणं वेदेंति ? गोयमा ! णो अब्भोवगमियं वेयणं वेदेंति, उवक्कमियं वेयणं वेदेंति, एवं जाव चउरिंदिया | पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा य दुविहं पि वेयणं वेदेंति, वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा णेरइया ॥ ६८४ ॥
भावार्थ - प्रश्न
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हे भगवन् ! नैरयिक आभ्युपगमिकी वेदना वेदते हैं या औपक्रमिकी वेदना
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वेदते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! नैरयिक आभ्युपगमिकी वेदना नहीं वेदते, औपक्रमिकी वेदना वेदते हैं। इसी प्रकार यावत् चउरिन्द्रिय तक कहना चाहिये। पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य दोनों प्रकार की वेदना वेदते हैं । वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों की वक्तव्यता नैरयिकों के समान समझनी चाहिये ।
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विवेचन - पंचेन्द्रिय तिर्यंचों और मनुष्यों में दोनों प्रकार की वेदना होती है क्योंकि सम्यग्दृष्टि तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों में कर्म क्षय करने के लिए आभ्युपगमिकी वेदना संभव है। शेष सभी जीव औपक्रमिकी वेदना ही वेदते हैं, आभ्युपगमिकी वेदना नहीं वेदते। पांच स्थावर और तीन विकलेन्द्रिय जीवों में मन का अभाव होने के कारण आभ्युपगमिकी वेदना संभव नहीं है। नैरयिक भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिकों में तथाप्रकार के भव स्वभाव के कारण आभ्युपगमिकी वेदना नहीं होती है।
७. निदा-अनिदा वेदना द्वार
कइविहा णं भंते! वेयणा पण्णत्ता ?
गोयमा ! दुविहा वेयणा पण्णत्ता । तंजहा- णिदा य अणिदा य ।
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भावार्थ- प्रश्न हे भगवन्! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? उत्तर - हे गौतम! वेदना दो प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार है २. अनिदा वेदना ।
विवेचन - वेदना दो प्रकार की हैं - १. निदा और २. अनिदा । " नितरां निश्चितं वा सम्यग् दीयते चित्तमस्यामिति निदा" जिसमें पूर्ण रूप से चित्त लगा हो, जिसका भलीभांति ध्यान हो अर्थात् जिस
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१. निदा वेदना और
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