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________________ २४० प्रज्ञापना सूत्र ### # उत्तर - हे गौतम! अनुत्तरौपपातिक देव संपूर्ण लोकनाड़ी को अवधिज्ञान से जानते देखते हैं। - विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वैमानिक देवों के अवधिज्ञान का विषय निरूपित किया गया है जो इस प्रकार है - पहले दूसरे देवलोक के देवों के अवधिज्ञान का विषय जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग उत्कृष्ट नीचे रत्नप्रभा पृथ्वी का नीचे का चरमान्त, तिरछे असंख्यात द्वीप समुद्र तथा ऊपर अपने अपने विमान की ध्वजा पताका तक है। तीसरे चौथे देवलोक के देवों के अवधिज्ञान का विषय पहले दूसरे देवलोक के देवों के समान है किन्तु इतना अन्तर है कि नीचे दूसरे शर्कराप्रभा पृथ्वी के नीचे के चरमान्त तक जानते देखते हैं। पांचवें छठे देवलोक के देव नीचे तीसरी वालुकाप्रभा पृथ्वी के नीचे के चरमान्त तक, सातवें आठवें देवलोक के देव नीचे चौथी पंकप्रभा पृथ्वी के नीचे के चरमान्त तक, नवें से बारहवें देवलोक के देव नीचे पांचवीं धूमप्रभा पृथ्वी के नीचे के चरमान्त तक, नवग्रैवेयक के नीचे की और बीच की त्रिक के देव नीचे छठी तमःप्रभा पृथ्वी के नीचे के चरमान्त तक और ऊपर की त्रिक के देवता नीचे सातवीं तमःतमः प्रभा पृथ्वी के नीचे के चरमान्त तक जानते देखते हैं। ये सभी तिरछे असंख्यात द्वीप समुद्र और पर अपने विमान की ध्वजा पताका तक जानते देखते हैं। पांच अनुत्तर विमान के देवता संभिन्न लोकनाड़ी अपनी ध्वजा पताका के ऊपर का भाग छोड़ कर परिपूर्ण चौदह राजू प्रमाण समस्त लोक को देखते हैं। प्रश्न - वैमानिक देव-देवियों का जघन्य अवधि अंगुल का असंख्यात भाग कैसे समझना? शेष दोनों का क्यों नहीं? उत्तर - श्री जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण आचार्य रचित ग्रन्थ विशेषावश्यक भाष्य गाथा ७०२ में वैमानिकों का जघन्य अवधि अंगुल के असंख्यातवें भाग का बताया है - वह परभव से लाये गये अवधि की अपेक्षा समझना चाहिये। अर्थात् जो (तियंच पंचेन्द्रिय या मनुष्य) परभव से अवधि लेकर वैमानिक में उत्पन्न होता है, उसे उत्पन्न होते समय परभव (तिर्यंच पंचेन्द्रिय या मनुष्य भव) जितना अवधि ही रहता है, देवभव सम्बन्धी अवधि बाद में (पर्याय अवस्था में) उत्पन्न होता है। वैमानिकों का अवधि अत्यधिक बड़ा होने से परभव से लाया अवधि अपर्याप्त अवस्था तक रहने से वैमानिकों का जघन्य अवधि अंगुल का असंख्यातवां भाग बताया है। अपर्याप्त अवस्था में देवभव का विशाल अवधि बढ़ नहीं पाता है। बाद में बढ़ जाने पर पर्याप्त अवस्था में ही बढ़ता है। भवनपति आदि देवों में वैमानिकों जैसा विशाल अवधि नहीं होने से - अपर्याप्त अवस्था से ही देवभव जितना अवधि का क्षेत्र हो जाता है। अतः उनके जघन्य अवधि २५ योजन का बताया है। दूसरी मान्यता - श्रावक श्री दलपतरायजी कृत 'नवतत्त्व प्रश्नोत्तरी में वैमानिकों का जघन्य अवधि अंगुल के असंख्यातवें भाग जितना बताया है - उसका आशय वे अंगल के असंख्यातवें भाग जितने सूक्ष्म द्रव्यों को जानने वाले होते है शेष देव नहीं जानते हैं।' परभव से अवधि लाने वालों में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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