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________________ तीसवां पश्यत्ता पद मूल पाठ में आये 'आगारेहिं' आदि पदों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है। १. आगारेहिं - केवली भगवान् इस रत्नप्रभा पृथ्वी आदि को अर्थात् आकार-प्रकारों से यथा यह रत्नप्रभा पृथ्वी खरकाण्ड, पंककाण्ड और अप्काण्ड के भेद से तीन प्रकार की है। खरकाण्ड के भी सोलह भेद हैं। उनमें से एक सहस्रयोजन प्रमाण रत्नकाण्ड है, तदनन्तर एक सहस्रयोजन- परिमित वज्रकाण्ड है, फिर उसके नीचे सहस्रयोजन का वैडूर्यकाण्ड है, इत्यादि रूप के आकार-प्रकारों से २२५ समझना । २. हेऊहिं - हेतुओं से अर्थात् उपपत्तियों से- युक्तियों से । यथा इस पृथ्वी का नाम रत्नप्रभा क्यों है ? युक्ति आदि द्वारा इसका समाधान यह है कि रत्नमयकाण्ड होने से या रत्न की ही प्रभा या स्वरूप होने से अथवा रत्नमयकाण्ड होने से उसमें रत्नों की प्रभाकान्ति है, अतः इस पृथ्वी का रत्नप्रभा नाम सार्थक है। ******* ३. उवमाहिं - उपमाओं से अर्थात् सदृशताओं से। जैसे कि - वर्ण से पद्मराग के सदृश रत्नप्रभा में रत्नप्रभ आदि काण्ड हैं, इत्यादि । Jain Education International ४. दिट्ठतेहिं - दृष्टान्तों- उदाहरणों से या वादी - प्रतिवादी की बुद्धि समता प्रतिपादक वाक्यों से। जैसे- घट, पट आदि से भिन्न होता है, वैसे ही यह रत्नप्रभा पृथ्वी शर्कराप्रभा आदि अन्य नरकपृथ्वियों से भिन्न है, क्योंकि इसके धर्म उनसे भिन्न हैं। इसलिए रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि से भिन्न वस्तु है, इत्यादि । ५. वण्णेहिं - वर्ण - गन्धादि भेद । शुक्ल आदि वर्णों के उत्कर्ष - अपकर्षरूप संख्यातगुण, असंख्यातगुण और अनन्तगुण के विभाग से तथा गन्ध, रस और स्पर्श के विभाग से । ६. संठाणेहिं - संस्थानों-आकारों से अर्थात् रत्नप्रभापृथ्वी में बने भवनों और नरकावासों की रचना के आंकारों से। जैसे- वे भवन बाहर से गोल और अन्दर से चौकोर हैं, नीचे पुष्कर की कर्णिका की आकृति के हैं। इसी प्रकार नरक अन्दर से गोल और बाहर से चौकोर हैं और नीचे क्षुरप्र ( खुरपा ) के आकार के हैं, इत्यादि । ७. पमाणेहिं - प्रमाणों से अर्थात् उसकी लम्बाई, मोटाई, चौड़ाई आदि रूप परिमाणों से। जैसे - वह एक लाख अस्सी हजार योजन मोटाई वाली तथा रज्जु -प्रमाण लम्बाई-चौड़ाई वाली है, इत्यादि । ८. पडोयारेहिं - प्रत्यवतारों से अर्थात् पूर्णरूप से चारों ओर से व्याप्त करनें वाले पदार्थों (प्रत्यवतारों) से। जैसे- घनोदधि आदि वलय सभी दिशाओं- विदिशाओं में व्याप्त करके रहे हुए हैं, अतः वे प्रत्यवतार कहलाते हैं। इस प्रकार के प्रत्यवतारों से जानना । केवली णं भंते! इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं अहेऊहिं अणुवमाहिं अदिट्टंतेहिं अवण्णेहिं असंठाणेहिं अपमाणेहिं अपडोयारेहिं पासइ ण जाणइ ? For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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