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________________ तीसवां पश्यत्ता पद २१७ REPRENER T E EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEtattattatuteketaketatutetstarterest अणागारपासणया णं भंते! कइविहा पण्णत्ता? गोयमा! तिविहा पण्णत्ता। तंजहा-चक्खुदंसणअणागारपासणया, ओहिदसणअणागारपासणया, केवलदसणअणागारपासणया, एवं जीवाणं पि। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! अनाकार पश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है? उत्तर - हे गौतम! अनाकार पश्यत्ता तीन प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार है- १. चक्षुदर्शन अनाकार पश्यत्ता २. अवधिदर्शन अनाकार पश्यत्ता और ३. केवलदर्शन अनाकार पश्यत्ता। इसी प्रकार समुच्चय जीवों में समझना चाहिये। विवेचन - साकार और अनाकार रूप भेद से उपयोग और पश्यत्ता में अन्तर नहीं है यानी पश्यत्ता भी उपयोग विशेष ही है किन्तु दोनों का अंतर स्पष्ट करते हुए टीकाकार अभयदेवसूरि ने लिखा है कि त्रैकालिक (दीर्घकालिक) बोध पश्यत्ता है जबकि वर्तमान कालिक बोध उपयोग है। यही कारण है कि साकार पश्यत्ता के भेदों में मतिज्ञान और मति अज्ञान को नहीं लिया गया है क्योंकि इन दोनों का विषय वर्तमान कालिक है। मतिज्ञान के लिए तो कहा भी है - जमवग्गहादिरूवं पच्चुप्पन्नवत्थुगाहगं लोए। इंदिय मणोनिमित्तं तमाभिनिबोधिगं बेति॥ अर्थात् लोक में अवग्रह आदि रूप, वर्तमान वस्तु को ग्रहण करने वाला इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला ज्ञान आभिनिबोधिक कहलाता है। - श्रुतज्ञान त्रिकाल विषयक है। श्रुतज्ञान से अतीत और अनागत भावों को भी जाना जा सकता है। कहा है कि - . . .. जं पुण तिकाल विसयं आगमगंथाणुसारि विन्नाणं। इंदिय मणोनिमित्तं सुयणाणं तं जिणा बेंति॥ अर्थात् आगम ग्रन्थ के अनुसार इन्द्रियां और मन के निमित्त से जो विज्ञान होता है उसको जिनेश्वर भगवान् श्रुतंज्ञान कहते हैं। __ अवधिज्ञान भी अतीत और अनागत असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप काल को जानता है। मनःपर्यवज्ञान भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग अतीत और अनागत काल को जानता है और केवलज्ञान सर्वकाल विषयक है। श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान भी त्रिकाल विषयक है क्योंकि उनसे भी अतीत और अनागत के भावों का ज्ञान होता है अतः उन ज्ञानों को यहाँ साकार पश्यत्ता शब्द से कहा गया है। जिनमें पूर्वोक्त स्वरूप वाले आकार की स्फुरणा होती है वह बोध वर्तमानकाल विषयक होता है या त्रिकाल विषयक होता है वहाँ उपयोग शब्द प्रयुक्त होता है इसीलिए साकार उपयोग आठ प्रकार का कहा गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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