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________________ उनतीसवां उपयोग पद #cccooooooooklo ॥ पण्णवणाए भगवईए एगूणतीसइमं उवओगपयं समत्तं ॥ कठिन शब्दार्थ - अट्ठ सहिया - अर्थ (कारण) सहित, अब्भहियं - अधिक । पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा णेरइया, मणूसा जहा जीवा, वाणमंतर जोइसियवेमाणिया जहा णेरइया ॥ ६६० ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीवों की पूर्ववत् अर्थ (कारण) सहित पृच्छा ? उत्तर - हे गौतम! यावत् जो बेइन्द्रिय जीव आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, मतिअज्ञान और श्रुत अज्ञान के उपयोग वाले होते हैं वे साकारोपयुक्त है और जो बेइन्द्रिय जीव अचक्षुदर्शन के उपयोग वाले होते हैं वे अनाकारोपयुक्त हैं इस कारण हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि बेइन्द्रिय जीव साकार उपयोग वाले भी होते हैं और अनाकार उपयोग वाले भी होते हैं। इसी प्रकार यावत् चउरिन्द्रिय जीवों के विषय में समझना चाहिये, विशेषता यह है कि चउरिन्द्रिय जीवों में चक्षुदर्शन अधिक कहना चाहिये। Jain Education International २१५ पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का कथन नैरयिकों के समान एवं मनुष्यों का कथन समुच्चय जीवों के समान समझना चाहिये। वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों की वक्तव्यता नैरयिकों के समान समझनी चाहिये । - clickleeccickle विवेचन प्रस्तुत सूत्रों में समुच्चय जीवों और चौबीस दण्डक के जीवों में साकार उपयोग और अनाकार उपयोग के विषय में कथन किया गया है। ॥ प्रज्ञापना भगवती का उनतीसवां उपयोग पद समाप्त ॥ ❖❖❖❖ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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