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बाईसवाँ क्रियापद - अठारह पापों से जीव को लगने वाली क्रियाएं
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कठिन शब्दार्थ - गहणधारणिजेसु दव्वेसु - ग्रहण करने और धारण करने योग्य द्रव्यों के विषय में।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या जीवों को अदत्तादान के अध्यवसाय से अदत्तादान क्रिया लगती है?
उत्तर - हे गौतम! ग्रहण और धारण करने योग्य द्रव्यों के विषय में यह क्रिया होती है। एवं णेरइयाणं णिरंतरं जाव वेमाणियाणं।
भावार्थ - इसी प्रकार समुच्चय जीवों के आलापक के समान नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक की अदत्तादान क्रिया का कथन करना चाहिए।
विवेचन - जो वस्तु ग्रहण या धारण की जा सकती है उसका ही आदान-ग्रहण होता है शेष का आदान नहीं होता। अत: उपरोक्त सूत्र में गहणधारणिज्जेसु दव्येसु' अदत्तादान क्रिया ग्रहण करने और धारण करने योग्य द्रव्यों के विषय में होती है, ऐसा कहा गया है। ‘अस्थि णं भंते! जीवाणं मेहुणेणं किरिया कज्जइ ? हंता! अत्थि। कम्हि णं भंते! जीवाणं मेहुणेणं किरिया कजइ? गोयमा! रूवेसु वा रूवसहगएसु वा दव्वेसु। . . कठिन शब्दार्थ - रूवसहगएसु - रूप सहगत के विषय में। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जीवों को मैथुन के अध्यवसाय से मैथुन क्रिया लगती है? उत्तर - हाँ गौतम! मैथुन के अध्यवसाय से मैथुन क्रिया लगती है। प्रश्न - हे भगवन् ! किस विषय में जीवों के मैथुन के अध्यवसाय से मैथुन क्रिया लगती है ? उत्तर - हे गौतम! रूपों अथवा रूपसहगत स्त्री आदि द्रव्यों के विषय में यह क्रिया लगती है। एवं णेरइयाणं णिरंतरं जाव वेमाणियाणं।
भावार्थ - इसी प्रकार समुच्चय जीवों के मैथुन क्रिया विषयक आलापकों के समान नैरयिकों से लेकर निरन्तर लगातार वैमानिकों तक मैथुन क्रिया के आलापक कहने चाहिए।
. विवेचन - मैथुन का विचार चित्र, लेप और काष्ठ आदि के बनाये हुए रूपों में और रूप सहित स्त्री आदि में होता है इसलिए उपरोक्त सूत्र में "रूवेसु वा रूवसहगएसु वा दव्वेसु" मैथुन क्रिया रूपों और रूप सहित द्रव्यों में होती है, ऐसा कहा गया है।
अत्थि णं भंते! जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कज्जइ? हंता! अत्थि।
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