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________________ अट्ठाईसवाँ आहार पद - प्रथम उद्देशक - आहारार्थी आदि द्वार १५९ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या नैरयिक सचित्ताहारी होते हैं, अचित्ताहारी होते हैं या मिश्राहारी होते हैं? ____उत्तर - हे गौतम! नैरयिक सचित्ताहारी नहीं होते हैं, अचित्ताहारी होते हैं, मिश्राहारी नहीं होते हैं। इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर यावत् वैमानिकों तक समझना चाहिये। औदारिक शरीरधारी यावत् मनुष्य सचित्ताहारी भी हैं, अचित्ताहारी भी हैं और मिश्राहारी भी है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के जीव सचित्त का आहार करते हैं ? अचित्त का आहार करते हैं या मिश्र का आहार करते हैं ? नैरयिक जीवों के लिए कहा गया है कि वे सचित्त आहार भी नहीं करते, मिश्र आहार भी नहीं करते किन्तु अचित्त आहार करते हैं। नैरयिक वैक्रिय शरीर धारी हैं और वे वैक्रिय शरीर के पोषण योग्य पुद्गलों का आहार करते हैं जो अचित्त ही होते हैं किन्तु जीव.द्वारा ग्रहण किये हुए नहीं होते अतः वे अचित्त आहार वाले हैं किन्तु सचित्त आहार वाले और मिश्र आहार वाले नहीं है। इसी प्रकार असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार तक सभी भवनपति देवों, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों के विषय में समझना चाहिये। औदारिक शरीर वाले जीव औदारिक शरीर पोषण योग्य पुद्गलों का आहार करते हैं और वे पुद्गल पृथ्वीकाय आदि के परिणाम रूप परिणत हुए होते हैं अतः सचित्त आहार वाले, अचित आहार वालें और मिश्र आहार वाले होते हैं अर्थात् औदारिक शरीर वाले (पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य) सचित्त, अचित्त, मिश्र-तीनों प्रकार का आहार करते हैं। २-८ आहारार्थी आदि द्वार णेरइया णं भंते! आहारट्ठी? हंता गोयमा ! आहारट्ठी। णेरइया णं भंते! केवइकालस्स आहारटे समुप्पजइ?.. _गोयमा! जेरइयाणं दुविहे आहारे पण्णत्ते। तंजहा - आभोगणिब्बत्तिए य अणाभोगणिव्वत्तिए य। तत्थ णं जे से अणाभोगणिव्वत्तिए से णं अणुसमयमविरहिए आहारट्टे समुप्पजइ। तत्थ णं जे से आभोगणिव्वत्तिए से णं असंखिजसमइए अंतोमुहुत्तिए आहारट्टे समुप्पज्जइ॥६४१॥ " कठिन शब्दार्थ - आभोगणिव्वत्तिए - आभोग निर्वर्तित, अणाभोगणिव्वत्तिए - अनाभोग निर्वर्तित, अणुसमयमविरहिए - अनुसमय-प्रतिसमय-अविरहित।। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! क्या नैरयिक आहारार्थी -आहार की इच्छा वाले होते हैं ? उत्तर - हाँ गौतम! नैरयिक आहारार्थी होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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