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________________ छव्वीसवां कर्म वेद बन्ध पद - १५३ NNNN NNNNNN+林林林林林林林林 अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधगा य ३, अबंधगेण वि समं दो भंगा भाणियव्वा ५, अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधए य अबंधए य चउभंगो, एवं एए णव भंगा। एगिदियाणं अभंगयं। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! बहुत जीव वेदनीय कर्म का वेदन करते हुए कितनी कर्म प्रकृतियाँ बांधते हैं? उत्तर - हे गौतम! १. सभी जीव सात कर्मों के, आठ कर्मों के और एक कर्म के बन्धक होते हैं, २. अथवा बहुत-से जीव सात कर्मों के, आठ कर्मों के या एक कर्म के बन्धक होते हैं और एक छह कर्मों का बन्धक होता है। ३. अथवा बहुत से जीव सात कर्मों के, आठ कर्मों के, एक कर्म के तथा छह कर्मों के बन्धक होते हैं ४-५. अबन्धक के साथ भी दो भंग कहने चाहिए ६-९. अथवा बहुत जीव सात कर्मों के, आठ कर्मों के, एक कर्म के बंधक होते हैं तथा कोई एक छह कर्मों का बन्धक होता है तथा कोई एक अबन्धक भी होता हैं, यों चार भंग होते हैं। कुल मिलाकर ये नौ भंग हुए। एकेन्द्रिय जीवों में कोई भंग नहीं होता। विवेचन - समुच्चय बहुत जीव वेदनीय कर्म वेदते हुए सात, आठ, छह अथवा एक कर्म बांधते हैं या अबन्धक होते हैं। इनमें सात, आठ और एक कर्म बांधने वाले शाश्वत हैं, छह कर्म बांधने वाले और अबन्धक अशाश्वत हैं। इनके नौ भंग होते हैं- असंयोगी एक, दो संयोगी चार, तीन संयोगी चार। १. सभी सात, आठ और एक कम बांधने वाले २. सात, आठ व एक कर्म बांधने वाले बहुत, छह कर्म बांधने वाला एक ३. सात आठ व एक कर्म बांधने वाले बहुत, छह कर्म बांधने वाले बहुत ४. सात आठ व एक कर्म बांधने वाले बहुत, अबंधक एक ५. सात आठ व एक कर्म बांधने वाले बहुत, अबंधक बहुत ६. सात आठ व एक कर्म बांधने वाले बहुत, छह कर्म बांधने वाला एक, अबंधक एक ७. सात आठ व एक कर्म बांधने वाले बहुत, छह कर्म बांधने वाला एक, अबंधक बहुत ८. सात आठ व एक कर्म बांधने वाले बहुत, छह कर्म बांधने वाले बहुत, अबंधक बहुत। · एकेन्द्रिय के बहुत जीव वेदनीय कर्म वेदते हुए सात या आठ कर्म बांधते हैं। इनमें भंग नहीं होता। णारगाईणं तियभंगा जाव वेमाणियाणं।णवरं मणूसाणं पुच्छा? सब्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य, अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधए य अट्टविहबंधए य अबंधए य, एवं एए सत्तावीसं भंगा भाणियव्वा। जहा किरियासु पाणाइवाय विरयस्स एवं जहा वेयणिजं तहा आउयं णामं गोयं च भाणियव्वं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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