SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ प्रज्ञापना सूत्र । उत्तर - हे गौतम! जो कर्मभूमक-कर्मभूमि में उत्पन्न हो, कर्मभूमिज के समान हो, यावत् श्रुत में उपयोग वाला हो, सम्यग्दृष्टि हो, मिथ्यादृष्टि हो, कृष्णलेश्यी हो या शुक्ललेश्यी हो, ज्ञानी हो या अज्ञानी हो, उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणाम वाला हो अथवा उसके योग्य विशुद्ध परिणाम वाला हो, ऐसा मनुष्य हे गौतम! उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले आयुष्य कर्म को बांधता है। केरिसिया णं भंते! मणुस्सी उक्कोसकालट्ठिइयं आउयं कम्मं बंधइ? गोयमा! कम्मभूमिया वा कम्मभूमगपलिभागी वा जाव सुत्तोवउत्ता सम्मदिट्ठी सुक्कलेसा तप्पाउग्गविसुज्झमाणपरिणामा, एरिसिया णं गोयमा! मणूसी उक्कोसकालट्टिइयं आउयं कम्मं बंधइ। अंतराइयं जहा णाणावरणिजं॥ ६३३॥ बीओ उद्देसो समत्तो॥ ॥पण्णवणाए भगवईए तेवीसइमं कम्मपगडीपयं समत्तं॥ .. भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! किस प्रकार की मनुष्य-स्त्री उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले आयुष्य कर्म को बांधती है? उत्तर - हे गौतम! जो कर्मभूमि में उत्पन्न हुई हो या कर्मभूमि में उत्पन्न होने वाली के समान हो यावत् श्रुत में उपयोग वाली हो, सम्यग्दृष्टि हो, शुक्ललेश्या वाली हो, अथवा तत्प्रायोग्य-उसके योग्य विशुद्ध परिणाम वाली हो, ऐसा मनुष्य स्त्री हे गौतम! उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले आयुष्य कर्म को बांधती है। उत्कृष्ट स्थिति वाले अन्तरायकर्म के बंध के विषय में ज्ञानावरणीय कर्म के समान जानना चाहिए। विवेचन - उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले आयुष्य कर्म का बंध सम्यग् दृष्टि या मिथ्यादृष्टि करते हैं, ऐसा कहा गया है क्योंकि यहाँ दो प्रकार का उत्कृष्ट आयुष्य है जो सातवीं नरक पृथ्वी का आयुष्य बांधते हैं वे मिथ्यादृष्टि और जो अनुत्तर देव का आयुष्य बांधते हैं वे सम्यग्दृष्टि होते हैं। यहाँ सम्यग्दृष्टि अप्रमत्त संयत समझना चाहिये। उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणाम वाला नरकायुष्य का बन्ध करता है और उसके योग्य विशुद्ध परिणाम वाला अनुत्तर देव का आयुष्य बंध करता है। मनुष्य स्त्री सातवीं नरक पृथ्वी योग्य आयुष्य का बंध नहीं करती है परन्तु अनुत्तर देव योग्य . आयुष्य का बंध करती है अत: मिथ्यादृष्टि कृष्णलेशी, अज्ञानी आदि का यहाँ ग्रहण नहीं किया है। सभी प्रशस्त पदों का ही ग्रहण किया है। ॥दूसरा उद्देशक समाप्त॥ ॥ प्रज्ञापना भगवती का तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद सम्पूर्ण॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy