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________________ ९४ प्रज्ञापना सूत्र W WWWHHHHHHHHHHW钟. WWW सम्यक्-मिथ्यात्ववेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है। विवेचन - सम्यक्त्व वेदनीय की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक छासठ सागरोपम उदय (विपाकोदय) की अपेक्षा समझनी चाहिए, बन्ध की अपेक्षा नहीं क्योंकि सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय का बन्ध नहीं होता है। मिथ्यात्व के पुद्गल सम्यक्त्व के योग्य - औपशमिक सम्यक्त्व रूप विशुद्धि तीन प्रकार से होते हैं - सर्व विशुद्ध, अर्द्ध विशुद्ध और अशुद्ध। इसमें जो सर्व विशुद्ध पुद्गल हैं वे 'सम्यक्त्व वेदनीय' कहलाते हैं। जो अर्द्ध विशुद्ध पुद्गल हैं वे 'सम्यक्त्व-मिथ्यात्व वेदनीय' और जो अशुद्ध पुद्गल हैं वे 'मिथ्यात्व वेदनीय' कहलाते हैं। अतः सम्यक्त्व वेदनीय और मिश्र वेदनीय इन दो प्रकृतियों का बन्ध संभव नहीं है। मिथ्यात्व वेदनीय की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून एक सागरोपम हैं क्योंकि उसकी उत्कृष्ट स्थिति सित्तर कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण है। सम्यक्त्व-मिथ्यात्व वेदनीय की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति उदय की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त है। कर्म साहित्य में सम्यक्त्व मोहनीय एवं मिश्र मोहनीय प्रकृति को मिथ्यात्व मोहनीय के अन्तर्गत समावेश करके स्वतंत्र रूप से इन दोनों प्रकृतियों का बन्ध नहीं माना है। शास्त्रकार तो १४८ ही प्रकृतियों का बन्ध मानते हैं। दोनों प्रकारों को अपेक्षा विशेष से समझ लेने पर दोनों की संगति हो सकती है। ___ कसायबारसगस्स जहण्णेणं सागरोवमस्स चत्तारि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखिजइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, चत्तालीसं वाससयाई अबाहा जाव णिसेगो। भावार्थ - बारह कषायों की जघन्य स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम सागरोपम के सात भागों में से चार भाग ( भाग) की है और उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल चालीस सौ (चार हजार) वर्ष का है तथा कर्मस्थिति में से अबाधाकाल कम करने पर जो शेष बचे वह कर्म निषेककाल है। कोहसंजलणे पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं दो मासा, उक्कोसेणं चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, चत्तालीसं वाससयाइं अबाहा जाव णिसेगो। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! संज्वलन क्रोध की स्थिति कितने काल की है ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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