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________________ पन्द्रहवां इन्द्रिय पद- द्वितीय उद्देशक दसवां अवग्रह द्वार व्यञ्जनावग्रह। इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक के अवग्रह के विषय में कहना चाहिए । पुढविकाइयाणं भंते! कइविहे उग्गहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे उग्गहे पण्णत्ते । तंजहा - अत्थोग्गहे य वंजणोग्गहे य । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने अवग्रह कहे गए हैं ? उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिकों के दो प्रकार के अवग्रह कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह । पुढविकाइयाणं भंते! वंजणोग्गहे कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगे फासिंदियवंजणोग्गहे पण्णत्ते । ६७ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के व्यञ्जनावग्रह कितने प्रकार के कहे गए हैं ? उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिकों के केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय- व्यञ्जनावग्रह कहा गया है। पुढविकाइयाणं भंते! कइविहे अत्थोग्गहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगे फासिंदियअत्थोग्गहे पण्णत्ते । एवं जाव वणस्सइकाइयाणं । एवं बेइंदियाण वि, णवरं बेइंदियाणं वंजणोग्गहे दुविहे पण्णत्ते, अत्थोग्गहे दुविहे पण्णत्ते, एवं तेइंदियचउरिंदियाण वि, णवरं इंदियपरिवुड्डी कायव्वा । चउरिदियाणं वंजणग तिविहे पण्णत्ते, अत्थोग्गहे चउव्विहे पण्णत्ते, सेसाणं जहा णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं १ - १० ॥ ४५१ ॥ भावार्थ - प्रश्न. - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने अर्थावग्रह कहे गये हैं? उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिकों के केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय अर्थावग्रह कहा गया है। अप्कायिकों से लेकर यावत् वनस्पतिकायिक तक के व्यञ्जनावग्रह एवं अर्थावग्रह के विषय में इसी प्रकार कहना चाहिए | इसी प्रकार बेइन्द्रियों के अवग्रह के विषय में समझना चाहिए। विशेषता यह है कि बेइन्द्रियों के व्यञ्जनवग्रह दो प्रकार के कहे गए हैं तथा उनके अर्थावग्रह भी दो प्रकार के कहे गए हैं। इसी प्रकार तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय जीवों के व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह के विषय में भी समझना चाहिए। विशेषता यह है कि उत्तरोत्तर एक-एक इन्द्रिय की वृद्धि होने से एक-एक व्यंजनावग्रह एवं अर्थावग्रह की भी वृद्धि कहनी चाहिए। चउरिन्द्रिय जीवों के व्यंजनावग्रह तीन प्रकार के कहे हैं और अर्थावग्रह चार प्रकार के कहे हैं। वैमानिकों तक शेष समस्त जीवों के अवग्रह के विषय में जिस प्रकार नैरयिकों के अवग्रह के विषय में कहा है, उसी प्रकार समझ लेना चाहिए। - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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