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________________ ४० प्रज्ञापना सूत्र फासिदिए पएसट्ठयाए संखिजगुणे। ओगाहण पएसट्ठयाए-सव्वत्थोवे बेइंदियस्स जिभिदिए ओगाहणट्ठयाए, फासिंदिए ओगाहणट्ठयाए संखिजगुणे, फासिंदियस्स ओगाहणट्ठयाएहितो जिभिदिए पएसट्ठयाए अणंतगुणे, फासिदिए पएसट्टयाए संखिजगुणे। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन बेइन्द्रियों की जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय में से अवगाहना की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से तथा अवगाहना और प्रदेशों दोनों की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है? उत्तर - हे गौतम! अवगाहना की अपेक्षा से - बेइन्द्रियों की जिह्वेन्द्रिय सबसे कम है, उससे अवगाहना की दृष्टि से संख्यातगुणी उनकी स्पर्शनेन्द्रिय है। प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे कम बेइन्द्रिय, की जिह्वेन्द्रिय है, उसकी अपेक्षा प्रदेशों की अपेक्षा से उनकी स्पर्शनेन्द्रिय है। अवगाहना और प्रदेशों की अपेक्षा से-बेइन्द्रियों की जिह्वेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से सबसे कम है, उससे उनकी स्पर्शनेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से संख्यातगुणी अधिक है, स्पर्शनेन्द्रिय की अवगाहना की अपेक्षा से जिह्वेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणी है। उसकी अपेक्षा स्पर्शनेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणी है। बेइंदियाणं भंते! जिभिदियस्स केवइया कक्खड गरुय गुणा पण्णत्ता? गोयमा! अणंता। एवं फासिंदियस्स वि, एवं मउय लहुय गुणा वि। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! बेइन्द्रियों की जिह्वेन्द्रिय के कितने कर्कश-गुरु गुण कहे गए हैं ? उत्तर - हे गौतम! इनकी जिह्वेन्द्रिय के कर्कश गुरु गुण अनन्त हैं। इसी प्रकार इनकी स्पर्शनेन्द्रिय के भी कर्कश-गुरु गुप अनन्त समझने चाहिए। इसी तरह इनकी जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के मृदुलघु गुण भी अनन्त समझने चाहिए। ___ एएसि णं भंते! बेइदियाणं जिभिदिय फासिंदियाणं कक्खड गरुय गुणाणं, मउय लहुय गुणाणं, कक्खड गरुय गुणाणं, मउय लहुय गुणाणं च कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा बेइंदियाणं जिभिदियस्स कक्खड गरुय गुणा, फासिंदियस्स कक्खड गरुय गुणा अणंत गुणा, फासिंदियस्स कक्खड गरुय गुणेहितो तस्स चेव मउय लहुय गुणा अणंतगुणा, जिभिदियस्स मउय लहुय गुणा अणंतगुणा। एवं जाव चरिदियाणं, णवरं इंदियपरिवुड्डी कायव्वा। तेइंदियाणं घाणिदिए थोवे, चउरिदियाणं चक्खिदिए थोवे, सेसं तं चेव। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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