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________________ इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान पद - प्रमाण द्वार 385 उत्कृष्ट नीचे की ओर अधोलौकिक ग्राम तक की, तिरछी मनुष्यक्षेत्र तक की और ऊपर अच्युतकल्प तक की होती है। एवं जाव आरणदेवस्स। भावार्थ - इसी प्रकार प्राणत और आरण तक की तैजस शरीर की अवगाहना समझ लेनी चाहिए। विवेचन - मारणांतिक समुद्घात से समवहत आनत - प्राणत और आरण कल्प के देवों की लम्बाई की अपेक्षा तैजस शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की उत्कृष्ट नीचे अधोलौकिक ग्राम तक तिरछी मनुष्य क्षेत्र तक और अच्युत देवलोक तक होती है जो इस प्रकार समझनी चाहिये-यदि कोई आनत आदि देव पूर्वभव संबंधी मनुष्य स्त्री को अन्य मनुष्य द्वारा भोगी हुई अवधिज्ञान से जान कर प्राणियों के विचित्र चरित्र, कर्म की विचित्र गति और कामवृत्ति से मलिन होकर उससे आलिंगन करता है और अत्यंत मूच्छित होकर अपने भवायुष्य के क्षय से काल करके उस स्त्री के ही गर्भ में मनुष्य के बीज रूप में उत्पन्न होता है। मनुष्य बीज जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक रहता है अत: बारह मुहूर्त के अंदर भोगी हुई स्त्री से आलिंगन करके मृत्यु प्राप्त कर वही मनुष्य रूप में उत्पन्न होता है तो जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना होती है। जब कोई आनत आदि देव किसी अन्य देव की निश्रा-अवलंबन से अच्युत देवलोक में जाता है और वहां काल करके अधोलौकिक ग्राम या मनुष्य क्षेत्र के पर्यन्त भाग में मनुष्य रूप से उत्पन्न होता है * तब उत्कृष्ट अवगाहना होती है। . अच्चुयदेवस्स एवं चेव, णवरं उड्डे जाव सयाई विमाणाई। भावार्थ - अच्युतदेव की तैजस शरीर की अवगाहना भी इन्हीं के समान होती है। विशेष इतना ही है कि ऊपर उत्कृष्ट तैजस शरीर की अवगाहना अपने-अपने विमानों तक की होती है। विवेचन - अच्युत देव की भी जघन्य और उत्कृष्ट से तैजस शरीर की अवगाहना इसी प्रकार की होती है किन्तु सूत्र पाठ में 'उहुंजाव सयाई विमाणाई' कहा है क्योंकि अच्युत देव भी कदाचित् ऊपर अपने विमान पर्यंत तक जाता है और वहाँ जाकर काल भी कर देता है अतः कहा है कि ऊर्ध्व-ऊपर अपने विमान तक उत्कृष्ट अवगाहना होती है। __ गेविजगदेवस्स णं भंते! मारणंतिय समुग्घाएणं समोहयस्स तेया सरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा! सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभबाहल्लेणं, आयामेणं जहण्णेणं विजाहरसेढीओ, उक्कोसेणं जाव अहोलोइयगामा, तिरियं जाव मणूसखेत्ते, उड्डे जाव सयाई विमाणाई। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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