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इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान पद - प्रमाण द्वार
भावार्थ - इसी प्रकार औघिक (समुच्चय) ज्योतिषी देवों के वैक्रिय शरीर के संस्थान के सम्बन्ध में समझना चाहिए।
एवं सोहम्मे जाव अच्चुयदेवसरीरे ।
भावार्थ - इसी प्रकार सौधर्म से लेकर अच्युत कल्प के कल्पोपपन्न वैमानिकों के भवधारणीय और उत्तर वैक्रिय शरीर के संस्थानों का कथन करना चाहिए ।
वेज्जग कप्पातीत वेमाणिय देव पंचिंदिय वेडव्वियसरीरे णं भंते! किंसठिए पण्णत्ते ?
गोयमा! गेवेज्जगदेवाणं एगे भवधारणिज्जे सरीरे, से णं समचउरंस संठाणसंठिए पण्णत्ते, एवं अणुत्तरोववाइयाण वि ॥ ५७३ ॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! ग्रैवेयक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रियों का वैक्रिय शरीर किस संस्थान का कहा गया है ?
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उत्तर - हे गौतम! ग्रैवेयक देवों के एक मात्र भवधारणीय वैक्रिय शरीर ही होता है और वह समचतुरस्र संस्थान वाला होता है।
इसी प्रकार पांच अनुत्तरौपपातिक वैमानिक देवों के भी भवधारणीय वैक्रिय शरीर ही होता है और वह समचतुरस्र संस्थान वाला होता है।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में वैक्रिय शरीरों के संस्थान का निरूपण किया गया है। भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और सौधर्म से अच्युत पर्यन्त बारह प्रकार के कल्पोपपन्न वैमानिक देवों का भवधारणीय शरीर भव स्वभाव से तथाप्रकार के शुभ नाम कर्म के उदय से समचतुरस्र संस्थान वाला होता है और उत्तरवैक्रिय इच्छानुसार होने से नाना संस्थान वाला होता है।
ग्रैवेयक और अनुत्तरौपपातिक देवों को प्रयोजन नहीं होने के कारण उत्तर वैक्रिय शरीर नहीं होता है, क्योंकि उनमें गमनागमन या परिचारणा नहीं होती है। इन कल्पातीत देवों में केवल भवधारणीय शरीर ही होता है जो समचतुरस्र संस्थान वाला होता है।
वेव्विय सरीरस्स णं भंते! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ?
गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिज्जइभागं, उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसयसहस्सं ।
भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! वैक्रिय शरीर की अवगाहना कितनी है ?
उत्तर - हे गौतम! वैक्रिय शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और
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