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प्रज्ञापना सूत्र
गुणा होता जाता है अर्थात् मनुष्य तियंच योनिक और नैरयिक असंज्ञी आयुष्य असंख्यात वर्षों के होते हैं एवं परस्पर एक दूसरे से असंख्यात गुणे भी होते हैं ।
विवेचन - असंज्ञी जीव की उत्पत्ति देवों में होती है, यह बात पहले कही गई है। वह उत्पत्ति आयुष्य से ही होती है। इसलिए यहाँ असंज्ञी जीवों के आयुष्य का कथन किया गया है।
वर्तमान में जो जीव असंज्ञी है, वह परभव का जो आयुष्य बांधता है उसे 'असंज्ञी का आयुष्य' कहते हैं। अंसंज्ञी जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव चारों गतियों का आयुष्य बांध सकता है। इसलिए असंज्ञी आयुष्य के चार भेद किये गये हैं । यह चार प्रकार का आयुष्य असंज्ञी जीव उपार्जन करता है।
असंज्ञी जीव नरक में जघन्य दस हजार वर्ष का आयुष्य उपार्जन करता है। यह आयुष्य रत्नप्रभा नरक के पहले पाथड़े की अपेक्षा समझना चाहिए। क्योंकि रत्नप्रभा के पहले पाथड़े में जघन्यं दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट ९० हजार वर्ष की स्थिति होती है। असंज्ञी जीव की नरक की उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग की होती है। यह स्थिति रत्नप्रभा के चौथे पाथड़े की अपेक्षा समझनी चाहिए। क्योंकि रत्नप्रभा के दूसरे पाथड़े में जघन्य दस लाख वर्ष की और उत्कृष्ट ९० लाख वर्ष की स्थिति होती है। तीसरे पाथड़े में जघन्य ९० लाख वर्ष और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की है चौथे पाथड़े में जघन्य पूर्व कोटि वर्ष की और उत्कृष्ट सागरोपम के दसवें भाग की स्थिति होती है। इस प्रकार इस चौथे पाथड़े में पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति, मध्यम स्थिति बनती है ।
असंज्ञी जीव की तिर्यंच और मनुष्य सम्बन्धी उत्कृष्ट आयु जो पल्योपमं के असंख्य भाग कही गयी है, वह युगलिक तिर्यंच और युगलिक मनुष्य की समझनी चाहिए।
असंज्ञी जीव की देव सम्बन्धी उत्कृष्ट आयु जो पल्योपम के असंख्यातवें भाग कही गई है वह भवनपति और वाणव्यन्तर देवों की अपेक्षा समझनी चाहिए और वह पल्योपम का असंख्यातवां भाग करोड़ पूर्व से ज्यादा नहीं समझना चाहिए।
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'पहले पाथड़े की उत्कृष्ट स्थिति ९० हजार वर्ष की होती है और दूसरे पाथड़े की जघन्य स्थिति दस लाख वर्ष की होती है। इसका यह फलितार्थ निकलता है कि इसके बीच की स्थिति वाले नैरयिक नहीं होते हैं अर्थात् ९० हजार वर्ष एक समय अधिक से लेकर एक समय कम दस लाख वर्ष की स्थिति किसी भी नैरयिक की नहीं होती है, क्योंकि वस्तु स्वभाव ही ऐसा है।
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पण्णवणाए भगवई वीसइमं अंतकिरियापयं समत्तं ॥ ॥ प्रज्ञापना भगवती का बीसवाँ अन्तक्रियापद समाप्त ॥
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