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________________ ३२४ प्रज्ञापना सूत्र णाणस्स केवलीणं धम्मायरियस्स संघसाहूणं। माई अवण्णवाई, किव्विसियं भावणं कुणइ॥ अर्थात्-ज्ञान, केवलज्ञानी, धर्माचार्य और चतुर्विध संघ एवं साधुओं का अवर्णवाद करने वाला एवं पापमय भावना रखने वाला किल्विषिक कहलाता है। ऐसा किल्विषिक साधु देवों में जावे तो उत्कृष्ट लान्तक कल्प तक उत्पन्न हो सकता है। तिर्यंच - गाय घोड़ा आदि देवलोक में जावे तो उत्कृष्ट सहस्रार कल्प में उत्पन्न हो सकते हैं। नोट- टीका में - 'देशविरति' विशेषण दिया है, किन्तु बिना देशविरति वाले तिर्यंच भी आठवें देवलोक तक जा सकते हैं। यह बात भगवती सूत्र चौबीसवें शतक के बीसवें उद्देशक के जघन्य उत्कृष्ट गमे से तथा चौबीसवें शतक के चौबीसवें उद्देशक के उत्कृष्ट जघन्य गमे से स्पष्ट होती है। आजीविक-एक खास तरह के पाषण्डी आजीविक कहलाते हैं या गोशालक के नग्न रहने वाले शिष्य अथवा लब्धि प्रयोग करके अविवेकी लोगों द्वारा ख्याति एवं महिमा, पूजा आदि प्राप्त करने के लिए तप और चारित्र का अनुष्ठान करने वाले और अविवेकी लोगों में चमत्कार दिखला कर अपनी आजीविका उपार्जन करने वाले-आजीविक कहलाते हैं। ये आजीविक यदि देवलोक में उत्पन्न हों, तो अच्युतकल्प तक उत्पन्न होते हैं। आभियोगिक-विद्या और मंत्र आदि के द्वारा दूसरों को अपने वश में करना-अभियोग कहलाता है। अभियोग दो प्रकार का है-द्रव्य अभियोग और भाव अभियोग। द्रव्य से चूर्ण आदि का योग बताना-द्रव्याभियोग और मंत्र आदि बताकर वश में करना-भावाभियोग है। जो व्यवहार से तो संयम का । पालन करता है, किन्तु मंत्र आदि के द्वारा दूसरे को अपने अधीन बनाता है, उसे आभियोगिक कहते हैं। आभियोगिक का लक्षण बताते हुए कहा है - कोऊय भूइकम्मे पसिणापसिणे निमित्तमाजीवी। इडि-रस-साय-गरुओ, अभिओगं भावणं कुणइ॥ अर्थात्-जो सौभाग्य आदि के लिए स्नान बतलाता है, भूतिकर्म (रोगी को भभूत-राख-देने का काम) करता है, प्रश्नाप्रश्न अर्थात् प्रश्न का फल, स्वप्न का फल बताकर तथा निमित्त बताकर आजीविका करता है, ऋद्धि, रस और साता का गर्व करता है, इस प्रकार कार्य करके जो संयम को दूषित करता है, फिर भी व्यवहार में साधु की क्रिया करता है, उसे आभियोगिक कहते हैं। यदि यह देवलोक में जावे तो उत्कृष्ट अच्युत देवलोक तक जाता है। सलिंगी - सलिंगी होते हुए भी जो निह्नव हैं अर्थात् जो साधु के वेश में है, किन्तु दर्शन भ्रष्ट है, वह निह्नव कहलाता है। यदि ये देव गति में जावे तो उत्कृष्ट नववें ग्रैवेयक तक जा सकते हैं। ये चौदह प्रश्नोत्तर हैं। इनसे यह नहीं समझना चाहिए कि - ये चौदह प्रकार के जीव देवलोक में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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