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बीसवां अन्तक्रिया पद - उद्वर्तन द्वार
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उत्तर - हे गौतम! कोई शील यावत् पौषधोपवास को अंगीकार कर सकता है और कोई नहीं कर सकता है।
जे णं भंते! संचाएजा सीलं वा जाव पोसहोववासं वा पडिवजित्तए से णं ओहिणाणं उप्पाडेजा?
गोयमा! अत्थेगइए उप्पाडेजा, अत्थेगइए णो उप्पाडेजा।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जो शील यावत् पौषधोपवास अंगीकार कर सकता है क्या वह अवधिज्ञान को प्राप्त कर सकता है?
उत्तर-हे गौतम! उनमें से कोई अवधिज्ञान प्राप्त कर सकता है और कोई प्राप्त नहीं कर सकता है। 'जे णं भंते! ओहिणाणं उप्पाडेजा से णं संचाएजा मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए?
गोयमा! णो इणढे समढे ॥५५९॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जो अवधिज्ञान प्राप्त कर लेता है, क्या वह मुण्डित होकर अगारत्व से अनगारत्व (अनंगार-धर्म) में प्रव्रजित होने में समर्थ है ?
उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। णेरइए णं भंते! णेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता मणुस्सेसु उववजेजा? गोयमा! अत्थेगइए उववजेजा, अत्थेगइए णो उववजेजा।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! नैरयिक जीव, नैरयिकों में से उद्वर्त्तन (निकल) कर क्या सीधा मनुष्यों में उत्पन्न हो सकता है?
उत्तर - हे गौतम! उनमें से कोई मनुष्यों में उत्पन्न होता है और कोई उत्पन्न नहीं होता है। जे णं भंते! उववजेजा से णं केवलि पण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए?
गोयमा! जहा पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिएसु जाव जेणं भंते! ओहिणाणं उप्पाडेजा से णं संचाएजा मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए?
गोयमा! अत्थेगइए संचाएजा, अत्थेगइए णो संचाएजा।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जो नैरयिकों में से अनन्तरागत जीव मनुष्यों में उत्पन्न होता है, क्या वह केवलि-प्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है ? . . उत्तर - हे गौतम! जैसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिकों में आकर उत्पन्न जीव के विषय में धर्मश्रवण से लेकर अवधिज्ञान प्राप्त कर लेता है, तक कहा है, वैसे ही यहाँ कहना चाहिए। विशेष प्रश्न यह है -
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