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उन्नीसवाँ सम्यक्त्व पद
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उत्तर - सम्यक् मिथ्या च दृष्टिर्येषां ते सम्यग्मिथ्यादृष्टिका:-जिनोक्त-भावान् प्रति उदासीना:
अर्थ - जिसकी दृष्टि न सम्यग् है न मिथ्या है और जो किसी प्रकार का निर्णय नहीं कर सकता है और जिनेन्द्र भगवान् के वचनों के प्रति उदासीन (रुचि और अरुचि दोनों से रहित) है। उसे मिश्र दृष्टि कहते हैं। सन्नी जीवों में ही मिश्र दृष्टि पाई जाती है। इसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त (पृथक्त्व श्वासोच्छ्वास) है। अन्तर्मुहूर्त के बाद वह जीव या तो सम्यग्दृष्टि बन जाता है अथवा मिथ्यादृष्टि बन जाता है।
एवं णेरइया वि। भावार्थ - इसी प्रकार नैरयिक जीवों में भी तीनों दृष्टियाँ होती हैं। असुरकुमारा वि एवं चेव जाव थणियकुमारा।
भावार्थ - असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक के भवनवासी देव भी इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं और सम्यग्-मिथ्यादृष्टि भी होते हैं।
पुढवीकाइया णं पुच्छा? .
गोयमा! पुढवीकाइया णो सम्मदिट्ठी, मिच्छदिट्ठी, णो सम्मामिच्छदिट्ठी, एवं जाव वणस्सइकाइया।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पृथ्वीकायिक जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं, मिथ्यादृष्टि होते हैं या सम्यग् मिथ्यादृष्टि होते हैं ? यह प्रश्न है।
उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक जीव सम्यग्दृष्टि नहीं होते, वे मिथ्यादृष्टि होते हैं, सम्यग् मिथ्यादृष्टि नहीं होते। इसी प्रकार यावत् अप्कायिकों, तेजस्कायिकों, वायुकायिकों एवं वनस्पतिकायिकों में दृष्टि विषयक प्ररूपणा समझ लेनी चाहिए।
बेइंदिया णं पुच्छा? . गोयमा! बेइंदिया सम्मदिट्ठी, मिच्छदिट्ठी, णो सम्मामिच्छदिट्ठी। एवं जाव चउरिदिया।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं, मिथ्यादृष्टि होते हैं, अथवा सम्यमिथ्यादृष्टि होते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! बेइन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं किन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते। इसी प्रकार चउरिन्द्रिय जीवों तक प्ररूपणा करना चाहिए।
पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया मणुस्सा वाणमंतर जोइसिय वेमाणिया य सम्मदिट्ठी वि मिच्छदिट्ठी वि सम्मामिच्छदिट्ठी वि।
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