SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७६ . प्रज्ञापना सूत्र (मनुष्य + १२ वाँ देवलोक + मनुष्य + १२ वाँ देवलोक + मनुष्य + १२ वां देवलोक+मनुष्य अनुत्तर विमान+मनुष्य+अनुत्तर विमान, ये दश भव) मिला कर अवधिदर्शन की कायस्थिति 'साधिक १३२ सागरोपम' हो जाती है। केवलदंसणी णं पुच्छा? गोयमा! साइए अपज्जवसिए॥दारं ११॥५४३॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! केवलदर्शनी कितनी काल तक केवलदर्शनी रूप में रहता है ? उत्तर - हे गौतम! केवलदर्शनी सादि-अपर्यवसित होता है। ॥ ग्यारहवाँ द्वार॥११॥ ___ १२. संयत द्वार संजए णं भंते! संजए त्ति पुच्छा?. गोयमा! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं देसूणं पुव्वकोडिं। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! संयत कितने काल तक संयत रूप में रहता है ? उत्तर - हे गौतम! संयत जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट देशोन करोड़ पूर्व तक संयत रूप में रहता है। विवेचन - यदि कोई चारित्र परिणाम के आते ही उसके अगले समय ही काल करे तो संयत का संयतपना जघन्य से एक समय होता है। असंजए णं भंते! असंजए त्ति पुच्छा? गोयमा! असंजए तिविहे पण्णत्ते। तंजहा - अणाइए वा अपजवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए। तत्थ णं जे से साइए सपज्जवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंताओ उस्सप्पिणि ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवडं पोग्गल परियट्टे देसूणं। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! असंयत कितने काल तक असंयत रूप में रहता है ? उत्तर - हे गौतम! असंयत तीन प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार है - १. अनादिअपर्यवसित २. अनादि-सपर्यवसित और ३. सादि-सपर्यवसित । उनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक अर्थात् काल की अपेक्षा-अनन्त उत्सर्पिणीअवसर्पिणियों तक तथा क्षेत्र की अपेक्षा-देशोन अपार्द्ध (अर्द्ध) पुद्गलपरावर्तन तक असंयत पर्याय में रहता है। विवेचन - असंयत तीन प्रकार के कहे गये हैं - १. अनादि अपर्यवसित (अनन्त)- जो संयम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy